इंदौर/गौतमपुरा। दीवाली के दूसरे दिन सोमवार शाम को इंदौर से 55 किमी दूर गौतमपुरा में दो गांवों के ग्रामीणों के बीच हिंगोट युद्ध का आयोजन हुआ| सालों पुरानी इस परंपरा को निभाने भगवान देवनारायण मंदिर के पास युद्ध मैदान पर तुर्रा और कलंगी दल योद्धा आपस में जमकर भिड़े, एक-दूसरे पर जलते हुए हिंगोट से हमला किया। परंपरा निभाने के नाम पर खेले जाने वाले मौत के इस खेल को देखने के लिए हजारों लोग जुटते हैं| हर साल इस युद्ध में कई लोग घायल हो जाते हैं| कुछ अपनी जान भी गँवा चुके हैं| इस बार भी दर्जन भर लोग घायल हुए हैं|
आसपास सहित अनेक जिलों व देश के कई स्थानों से आए दर्शक इस रोमांचक युद्ध को देखने के लिए पहुंचे । दोनों दलों के प्रतिनिधि जब एक दूसरे पर जलते हुए हिंगोट फेंक रहे थे तब लग रहा था कि दोनों ओर से मानों अग्निबाण चलाए जा रहे हैं। इस बार प्रशासन ने दर्शकों की सुरक्षा के लिए आठ फीट ऊंची जाली मैदान में लगाई थी।
इस आयोजन के लिए प्रतियोगी एक हाथ में ढाल और दूसरे हाथ में जलती हुई लकड़ी लेने के साथ ही अपने सिर पर साफा बांधकर जुलूस के रूप में देवनारायण मंदिर पहुचेंगे। इसके बाद युद्ध आरंभ हुआ। गौतमपुरा गांव के योद्धा तुर्रा जबकि रुनजी गांव के योद्धा कलंगी कहलाते हैं । इस युद्ध में 10 लोग भी घायल हुए है । क्षेत्रीय विधायक विशाल पटेल भी यहां पहुंचे जिन्होंने अगले वर्ष इन योद्धाओं को हेलमेट भी दिलवाने की बात कही । वहीं घायल हुए योद्धा ने भी इस परम्परा को पुरानी परंपरा बताया ।
सालों पुरानी परंपरा, दर्जनों होते हैं घायल
इस युद्ध के शुरू होने की तारीख का कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता है लेकिन दीपावली के अगले दिन पड़वा पर यहां के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी हिंगोट युद्ध का हिस्सा बनते चले आ रहे हैं। दरअसल, गौतमपुरा में वर्षों से हिंगोट युद्ध की परंपरा चली आ रही है. इस परंपरा के तहत दो-दो गांवों के लोग एक-दूसरे पर जमकर हिंगोट (बारूदी गोलों) बरसाते हैं| इस युद्ध में शामिल होने वाले लोग पूरी तैयारी से पहुंचते हैं| जहां सुरक्षा के लिए हाथों में ढाल होती है तो सिर पर बड़ा से साफा (कपड़े की पगड़ी) बांधे रहते हैं| इसके बावजूद हर साल दर्जनों लोग हादसे का शिकार होकर घायल हो जाते हैं|
ऐसे बनता है ‘हिंगोट’
हिंगोट हिंगोरिया नामक पेड़ पर पैदा होने वाला एक फल है। जो नींबू के आकारनुमा होकर ऊपर से नारियल समान कठोर तथा अंदर से खोखला होता है, जिसे योद्धा जंगल पहुंचकर पेड़ से तोड़कर लाते हैं। इसे ऊपर से साफ कर भीतर से उसका गुदा निकाल दिया जाता है। इसके बाद सूखने के लिए धूप में रख दिया जाता है। इसमें एक ओर बड़ा छेद कर उसे बारूद से भरकर पीली मिट्टी से मुहं बंद कर दिया जाता है। और बारीक छेद पर बारूद की बत्ती लगा देते हैं। जिस पर अग्नि को छुआते ही हिंगोट जल उठता है। यह कार्य एक माह पहले से शुरू हो जाता है। दीपावली के अगले दिन पड़वा को यह जोखिम भरा हिंगोट युद्ध दो दल क्रमश: तुर्रा (गौतमपुरा) तथा कलंगी (रुणजी) के बीच होता है।