आज से प्रेम सप्ताह मतलब वैलेंटाइन वीक शुरू हो चुका है। हर वो शख्स जो किसी से प्रेम करता है, आज से ही इस कोशिश में जुट जाएगा कि किस प्रकार अपने प्रेमी या प्रेमिका से अपनी भावनाओं का इज़हार कर सके। युवा तो नए सपने, नई उमंगों से सराबोर हैं हीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उम्र के उस पड़ाव को पार कर चुके हैं। लेकिन अब भी कहीं न कहीं उनके मन के किसी गहरे कोने में कोई याद, कोई नाम, कोई दर्द, कोई अनुभव छिपा हुआ है। ज़रा सोचिये, सालों बाद यदि आप अपनी प्रेमिका का हालचाल जानना चाहें तो किस प्रकार उसे संबोधित करेंगे। आखिर क्या होगी आपकी शब्दावली, आपकी भाषा। आज वैलेंटाइन वीक की शुरूआत पर चलिए हम आपको पढ़वाते हैं एक कविता, ऐसी कविता जिसने बेहद ख्याति बटोरी है। जिसमें किसी का हाल जानने की बेताबी है, किसी के बारे में कुछ अंदाज़ा लगाया गया है, किसी को फिर नाम लेकर पुकारा गया है। तो आईये पढ़िये मशहूर कवि ज्ञानेंद्रपति की ये बेहद प्रसिद्ध कविता – चेतना पारीक कैसी हो ?
कविता
ट्राम मे�� एक याद
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?
तुम्हें मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
आँखों में उतरती है किताब की आग?
नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ से घुमंतू कवि से होती है कभी टक्कर
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी ही हरी हो?
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब रेल बन रही चल रही ट्राम है.
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है.
इस महावन में फिर भी एक गोरैया की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्हीं पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टाहास में एक हंसी कम है
विराट धक-धक में एक धडकन कम है
कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलुवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस
वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लिखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है.
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो!