ग्वालियर।अतुल सक्सेना।
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह (Former Chief Minister Digvijay Singh) को भले ही राजनीति का चाणक्य कहा जाता हो लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ (Former Chief Minister Kamal Nath) ने विश्व पर्यावरण दिवस (World Environment Day) के मौके पर शुक्रवार को ऐसा मास्टर स्ट्रोक चला जिसने राजनीति की बयार को तेज कर दिया। हालांकि ये बयार कांग्रेस के लिए ठंडी होगी कि नहीं ये आने वाला समय बताएगा लेकिन उप चुनाव से पहले उन्होंने ग्वालियर चंबल संभाग (Gwalior Chambal Division) में ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) को घेरने के लिए उनके पिता माधव राव सिंधिया (Father Madhav Rao Scindia) के बाल सखा, पूर्व मंत्री और अंचल के खाटी ब्राह्मण नेता बालेंदु शुक्ला (Former minister and Kheti Brahmin leader of the region, Balendu Shukla) की घर वापसी करा ली। कमलनाथ ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में बालेंदु को अपने आवास पर कांग्रेस की पुनः सदस्यता दिलाई।
“बालेंद्र शुक्ला” पिछले 20 साल से यह नाम भले ही मध्य प्रदेश की राजनीति में गुमनामी के साए में हो लेकिन एक समय ऐसा था जब मध्य प्रदेश की राजनीति में इस नाम की तूती बोलती थी। 1980 से लेकर 2001 तक जब तक “बड़े महाराज” यानि माधवराव सिंधिया जीवित रहे बालेन्दु शुक्ला और माधव राव एक-दूसरे का पर्याय माने जाते रहे। कम से कम उस समय तो मध्य प्रदेश में कोई ऐसा न था जो माधवराव से सिवाय महाराज के कोई दूसरा संबोधन देता हो। एकमात्र बालेन्दु ही ऐसे थे जो उन्हें भैया कहकर पुकारते थे। दरअसल बालेन्दु माधवराव के बाल सखा थे। सिंधिया स्कूल की पढ़ाई से लेकर राजनीति तक का सफर माधवराव के साथ ही बालेन्दु ने पूरा किया। वो शख़्स माधव राव सिंधिया ही थे जो बालेंदु शुक्ला को बैंक की नौकरी से इस्तीफा दिलाकर राजनीति में लाए और फिर मध्य प्रदेश में विधायक और मंत्री तक बनवाया। एजी ऑफिस पुल के नीचे झांसी रोड पर बनी भव्य कोठी उस समय महल से कम रुतबा नहीं रखती थी। जाहिर सी बात है कि माधवराव के कई सिपहसालारों को यह नज़दीकियां खलती थी।इसलिए बालेन्दु के खिलाफ एक लॉबी एकजुट होने लगी जिसका नेतृत्व पूर्व मंत्री स्वर्गीय महेंद्र सिंह कालूखेड़ा करते थे। 2001 में जब माधवराव सिंधिया का असामयिक निधन हुआ तब यह लॉबी ताकत में आ गई और बालेन्दु के खिलाफ ज्योतिरादित्य सिंधिया के कान भरने शुरू कर दिए । चूंकि ज्योतिरादित्य भी महाराज बन चुके थे और उनका बालेन्दु के प्रति अंकल वाला व्यवहार परिवर्तित हो गया और वे भी धीरे-धीरे उन्हें नजर अंदाज करने लगे। वे ये भूल गए कि काका बालेंदु ने ही उन्हें बचपन में राजनीति का ककहरा सिखाया है। कई बार ऐसे अवसर आये जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सार्वजनिक रूप से बालेंदु शुक्ला का अपमान किया जिसे स्वाभिमानी बालेन्दु स्वीकार नहीं कर पाए और उन्होंने एक दिन कांग्रेस को अलविदा कह दिया। लेकिन खास बात ये है कि महल के प्रति वफादारी और माधव राव सिंधिया से दोस्ती को कभी 74 वर्षीय नेता ने दाग नहीं लगाया कभी अपशब्द नहीं कहे। देश के सबसे बड़े न्यूज़ पेपर में अक्टूबर 2017 में दिये एक इंटरव्यू में जरूर एक बार बालेंदु शुक्ला ने कहा था कि ज्योतिरादित्य चाहते थे कि मैं भी उन्हें महाराजा की तरह ट्रीट करूँ जो मुझे स्वीकार नहीं था, और मेरा मन नही मिला।
13 साल तक कैबिनेट मंत्री रहे बालेंदु शुक्ला, टिकट कटा तो कांग्रेस छोड़ दी
1980 में कांग्रेस जॉइन करने के बाद बालेंदु शुक्ला 2003 तक लगातार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ते रहे । इसमें वे तीन चुनाव जीते तीन हार गए।इस दौरान वे अर्जुन सिंह, मोतीलाल बोरा और दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में 13 वर्षों तक कैबिनेट मंत्री रहे।उन्हें 2003 में ग्वालियर विधानसभा सीट से भाजपा के नरेंद्र सिंह तोमर ने हराया था इसके बाद 2008 के चुनाव में कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया बताया जाता है कि बालेंदु का टिकट ज्योतिरादित्य के कहने पर काटा गया। उन्होंने इसके बाद कांग्रेस छोड़ दी। बालेंदु ने फिर ग्वालियर दक्षिण विधानसभा से बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन ये चुनाव वे हार गए। फिर 2010 में उन्होंने भाजपा जॉइन की और शिवराज सरकार ने उन्हें सामान्य निर्धन वर्ग कल्याण आयोग का अध्यक्ष बना दिया और कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया। लेकिन यहाँ भी उन्हें वो सम्मान नहीं मिला जिसकी उन्हें दरकार थी।
जिसके कारण कांग्रेस छोड़ी वही फिर सामने आ गए
बालेंदु शुक्ला को भाजपा ने अपनी पार्टी में शामिल तो कर लिया और आयोग का अध्यक्ष भी बना दिया लेकिन अपनाया नहीं। स्थानीय नेताओं ने भी कभी उनको वजन नहीं दिया। जिला स्तर के कार्यक्रम से लेकर प्रदेश स्तर तक के कार्यक्रमों में बालेंदु की कोई राय कभी नहीं ली गई। जिला स्तर तक के नेता उनको नेता स्वीकार नहीं करते थे। इसलिए वे पिछले तीन चार साल से घर वापसी के प्रयास में थे। लेकिन सिंधिया के चलते उनकी घर वापसी नहीं हो पा रही थी। अब जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ही भाजपा में आ गए तो ये संभव नही था कि बालेंदु उनके साथ काम कर पाएं। क्योंकि सिंधिया द्वारा उन्हें दिया गया अपमान वे भूले नहीं हैं। लिहाजा उन्होंने कांग्रेस में वापसी के प्रयास तेज कर दिये और आज शुक्रवार पांच जून को उन्होंने फिर से कांग्रेस का हाथ थाम लिया।
सिंधिया को घेरने के लिए कमलनाथ को चाहिए था अंचल में बड़ा नाम
बालेंदु शुक्ला भले ही पिछले 20 साल से सुप्तावस्था में दिखाई दे रहे हो लेकिन उनका राजनैतिक वजूद खत्म नहीं हुआ। पुराने कांग्रेसियों सहित ब्राह्मण समाज में आज भी उनका सम्मान है। ग्वालियर अंचल में वे अपनी एक सौम्य नेता वाली पहचान भी रखते हैं। चूंकि कांग्रेस को सिंधिया को घेरने के लिए एक बड़े नाम की तलाश थी और बालेंदु शुक्ला को भी सम्मान की तलाश थी इसलिए दोनों ने हाथ मिला लिया। कांग्रेस को उम्मीद है कि ये पुराना साथ ग्वालियर अंचल में कांग्रेस को मजबूती देगा जिसका फायदा उप चुनाव में कांग्रेस को मिलेगा। चूंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद ग्वालियर चंबल अंचल में डॉ गोविंद सिंह ही अब तक एक मात्र बड़ा नाम थे लेकिन उनका रुझान चंबल में अधिक था पार्टी को सिंधिया के क्षेत्र के लिए कोई नेता चाहिए था जिसकी कमी उसने बालेंदु शुक्ला के रूप में पूरी कर ली। अब देखना ये होगा कि चुनाव में इसका कितना लाभ कांग्रेस ले पाती है। उधर चर्चा ये भी है कि पार्टी को ग्वालियर पूर्व विधानसभा के लिए मुन्नालाल के खिलाफ बड़े ब्राह्मण नेता की तलाश थी जिसे पूरा किया गया है हालांकि ये अभी कयास ही है। बहरहाल राजनैतिक पंडित बालेंदु की वापसी को कमलनाथ का सिंधिया के खिलाफ मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं।