Demand for memorial of Jawaharlal Nehru’s ‘Tribal Wife’ : जवाहरलाल नेहरू की ‘आदिवासी पत्नी’ बुधनी मंझियाइन (Budhani Manjhiyain) की मौत हो गई है और अब इसके बाद उनका स्मारक बनाए जाने की मांग उठने लगी है। जीवनभर अपमान और बहिष्कार का दंश झेलने वाली बुधनी को मौत के बाद सम्मान देने की मांग उठ रही है। आइये आपको बताते हैं क्या है सारा मामला।
फूलों की माला बनी जीवनभर का दंश
ये कहानी शुरु होती है दिसंबर 1959 को। इस दिन झारखंड के धनबाद जिले तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल पहुंचे थे। वे यहां दामोदर वैली कॉरपोरेशन की ओर से निर्मित पंचेत डैम और हाईडल पावर प्लांट का उद्घाटन करने आए थे। बुधनी मंझिआइन उस दिन बहुत खुश थी और उसने अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनी थी। आदिवीस परिधान और गहनों से सजी हुई बुधनी उद्घाटन स्थल पर पहुंची। दरअसल वो यहां काम करती थी और उसे प्रधानमंत्री का स्वागत करना था। बुधनी उस समय सिर्फ 16 साल की थी और ये तय किया गया था कि पंडित नेहरू का स्वागत झारखंड के संथाली आदिवासी समाज की बुधनी द्वारा किया जाएगा। लेकिन यहां कुछ ऐसा हुआ जिसने उसका जीवन ही बदल दिया।
जब जवाहरलाल नेहरू यहां पहुंचे तो बुधनी मंझिआइन ने पारंपरिक तरीके से उनका स्वागत किया। चंदन का तिलक लगाकर आरती उतारी और उनके गले में फूलों की माला पहनाई। उसी समय पंडित नेहरू ने इस आदिवासी लड़की के सम्मान में अपने गले में पहनाई गई माला उतारी, और उसके गले में डाल दी। इतना ही नहीं..प्रधानमंत्री ने पनबिजली प्लांट का उद्घाटन भी बुधनी के हाथों बटन दबाकर ही करवाया।
समाज ने किया बुधनी का बहिष्कार
लेकिन उस समय बुधनी को कहां पता था कि ये पल भर की खुशी उसके पूरे जीवन को तबाह कर देगी। दरअसल संथाल आदिवासी समाज में उस समय तक ये परंपरा थी कि यदि लड़का लड़की एक दूसरे को माला पहना दे तो उनकी शादी हो जाती है। इसलिए वहां कोई भी लड़की-लड़का या स्त्री पुरुष एक दूसरे को माला नहीं पहनाते थे। माला पहनाने का अर्थ उनका विवाह माना जाता था। वहीं अगर कोई अपने समुदाय से बाहर शादी कर ले तो उसका बहिष्कार भी कर दिया जाता था। बस इसी परंपरा के चलते सिर्फ 16 साल की बुधनी का जीवन जंजाल में फंस गया।
जैसे ही पंडित नेहरू द्वारा उसे माला पहनाने की बाद सामने आई, उसके समाज ने उसका बहिष्कार कर दिया। गांव में उसके आने पर प्रतिबंध लगा दिया और उसे किसी भी कार्यक्रम या सामाजिक गतिविधि से बहिष्कृत कर दिया गया। इससे पहले बाकायदा समाज की पंचायत बुलाई गई और कहा कि एक दूसरे को माला पहनाने के कारण बुधनी को पंडित नेहरू की पत्नी माना जाएगा और वो पूरी जिंदगी उनकी पत्नीन ही कहलाएगी। इसी के साथ संथाल समाज से उसका कोई सरोकार नहीं रहेगा। बाद में उसका पैतृक गांव भी डैम के डूब इलाके में आ गया और उसका परिवार विस्थापित होकर दूसरे स्थान पर जा बसा।
बिना शादी के पति-पत्नी के रूप में अपने साथी के साथ रही बुधनी
बुधनी को डीवीसी में मजदूर के रूप में नौकरी मिली थी लेकिन 1962 में उसे नौकरी से निकाल दिया गया। कहा जाता है कि आदिवासी समाज के विरोध के कारण ही उसे अपनी नौकरी भी गंवानी पड़ी थी। इसके बाद वो काम की तलाश में बंगाल के पुरुलिया जिले के सालतोड़ पहुंची। वहां कुछ समय बाद उसकी मुलाकार सुधीर दत्ता नाम के व्यक्ति से हुई और उनमें प्रेम हो गया। वो एक साथ पति पत्नी की तरह रहने लगे, लेकिन उन्होने औपचारिक रूप से शादी नहीं की थी। समाज के डर के कारण उन दोनों ने कभी भी परंपरागत तरीके से शादी करने की हिम्मत नहीं की। इन दोनों की एक बेटी भी हुई जिसका नाम रत्ना है और अब उसकी शादी हो चुकी है।
पंडित नेहरू की मूर्ति के बगल में बुधनी की मूर्ति लगाने की मांग
पिछले शुक्रवार बुधनी मंझियाइन की 80 साल की उम्र में मौत हो गई। उनके अंतिम समय में उनकी बेटी रत्ना उनके साथ थी। इस मौके पर स्थानीय नेता और अधिकारियों सहित सैंकड़ों लोग उन्हें अंतिम विदा देने पहुंचे। इसी मौके पर वहां मौजूद लोगों ने स्थानीय पार्क में लगी पंडित नेहरू की मूर्ति के बगल में बुधनी मंझियाइन की मूर्ति लगाने की मांग की है। उनका कहना है कि पंडित नेहरू की ‘आदिवासी पत्नी’ कहलाने और जाने अनजाने हुई उस घटना के बाद जीवनभर परेशानी झेलने वाली बुधनी को इतना सम्मान तो मिलना ही चाहिए। इसी के साथ उनकी बेटी रत्ना को पेंशन देने की मांग भी उठाई गई है।