यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की ने एक अहम घोषणा करते हुए कहा है कि यूक्रेन ने रूस को अगले सप्ताह एक और शांति वार्ता आयोजित करने का प्रस्ताव भेजा है। ज़ेलेंस्की का यह बयान ऐसे समय आया है जब युद्धविराम की उम्मीदों के बीच रूसी हमलों में तेजी देखी जा रही है और पूर्वी डोनेट्स्क क्षेत्र में हालात बिगड़ते जा रहे हैं।
राष्ट्र के नाम संबोधन में ज़ेलेंस्की ने कहा कि- “युद्धविराम के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। रूसी पक्ष को फैसलों से छिपना बंद कर देना चाहिए।” उन्होंने स्पष्ट किया कि पूर्व रक्षा मंत्री और वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा एवं रक्षा परिषद के प्रमुख रुस्तम उमरोव ने इस वार्ता के लिए मास्को को औपचारिक प्रस्ताव भेजा है।
अब तक दो दौर की वार्ता
इस्तांबुल में बीते 5 महीनों के भीतर दो दौर की वार्ता हो चुकी है। इन वार्ताओं में केवल कैदियों की अदला-बदली पर सहमति बनी। लेकिन 2022 में शुरू हुए युद्ध को खत्म करने पर कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। ज़ेलेंस्की ने इस तीसरे प्रस्ताव को “शांति की दिशा में अंतिम कोशिशों में से एक” बताया।
रूस का रुख अब भी आक्रामक
रूसी सेना डोनेट्स्क और लुहान्स्क के क्षेत्रों में आक्रामक कार्रवाइयां कर रही है। क्रेमलिन की ओर से वार्ता को लेकर औपचारिक स्वीकृति नहीं आई है, लेकिन वह “शर्तों के साथ संवाद के लिए तैयार” बताता रहा है। डोनाल्ड ट्रंप, जो फिर से अमेरिकी राष्ट्रपति के पद पर हैं, उन्होंने इस महीने की शुरुआत में चेताया था कि अगर “50 दिनों के भीतर कोई शांति समझौता नहीं होता है, तो रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाएंगे।” ट्रंप अब तक यूक्रेन को खुला समर्थन नहीं दे रहे थे, लेकिन हवाई हमलों और मानवीय संकट के बढ़ते असर ने उनका रुख सख्त कर दिया है।
क्या आगे होगा?
अगर रूस यह प्रस्ताव स्वीकार करता है, तो यह 2022 के युद्ध की शुरुआत के बाद पहली बार है जब तीसरे दौर की गहन शांति वार्ता हो सकती है। लेकिन दोनों पक्षों की शर्तें टकराती हैं। यूक्रेन चाहता है कि रूस अपने कब्जे वाले क्षेत्रों से हटे। जबकि रूस चाहता है कि यूक्रेन NATO में शामिल न हो और डोनबास क्षेत्र पर अपना दावा छोड़े। यूक्रेन की यह नई पहल दर्शाती है कि ज़ेलेंस्की की सरकार अब युद्ध की थकान से बाहर निकलकर समाधान की तलाश में गंभीर है। लेकिन यह कदम कितना सफल होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्रेमलिन इस प्रस्ताव पर कैसे प्रतिक्रिया देता है, और क्या अंतरराष्ट्रीय दबाव उसे वार्ता की मेज पर लाने में कामयाब होता है।





