भारत में शिक्षा का परिदृश्य – चाहे शालेय हो, उच्च शिक्षा हो, तकनीकी शिक्षा हो या चिकित्सा और नर्सिंग या इंजीनियरिंग की शाखाएं – सबके हालात बहुत खराब हैं। इससे उन भारतीयों की नींद उड़ जानी चाहिए, जो विश्वस्तरीय संस्थानों पर नजर गड़ाए बैठे हैं और हार्वर्ड विश्वविद्यालय की शिक्षा प्रणाली को शरारती राजनीतिक जुमलों से बदनाम कर रहे हैं। स्कूली छात्रों की पढ़ने और लिखने की क्षमता के बारे में शिक्षा मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट ने जो सवालिया निशान लगाया है, उससे राजनीति और शिक्षा क्षेत्र के अधिकारियों को शर्मसार होना चाहिए।
‘परख’ राष्ट्रीय सर्वेक्षण, जिसे पहले राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (एनएएस) कहा जाता था, ने शालेय बच्चों की बुनियादी स्तर पर अक्षमता के बारे में जो आंकड़े जारी किए हैं, वे हमारी शिक्षण पद्धति में भारी खामियों को उजागर करते हैं क्योंकि छात्र लगभग शुरुआती दौर में ही असफल हो रहे हैं। कक्षा छह के लगभग 54 प्रतिशत छात्र पूर्ण संख्याओं की तुलना करने या बड़ी संख्याएं पढ़ने में असमर्थ हैं।
सर्वेक्षण से हुआ चौकाने वाला खुलासा
इस सर्वेक्षण के लिए देश के 781 जिलों के 74,229 विद्यालयों के 21.15 लाख से ज्यादा छात्रों के एक अपेक्षाकृत बड़े नमूने का इस्तेमाल किया गया। इस सर्वेक्षण में सरकारी और निजी दोनों स्कूलों के कक्षा तीन, छह और नौ के छात्रों को शामिल किया गया, जिसके नतीजे चौंकाने वाले रहे है। रिपोर्ट में कहा गया है कि छात्रों को 7 के गुणज, 3 की घात आदि पहचानने में दिक्कत हुई। पिछले दिसंबर में तीन कक्षाओं में गणित, भाषा और बुनियादी स्तर की दक्षताओं का परीक्षण किया गया था।
गणित की तुलना में भाषा कौशल आसान था, फिर भी कक्षा छठवीं के 43 प्रतिशत विद्यार्थी अनुमान, भविष्यवाणी और कल्पना जैसी विभिन्न बोध रणनीतियों को लागू करने में असमर्थ थे। विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में, नौवीं के छात्र न्यूनतम योग्यता मानदंडों को पूरा करने में विफल रहे। लेकिन यह सिर्फ स्कूली छात्रों के साथ ही नहीं है। कॉलेज और निजी विश्वविद्यालय-जिन्हें कुछ लोग शिक्षा के मंदिर नहीं, बल्कि ‘पैसा कमाने वाले संस्थान’ कहना पसंद करते हैं- कुछ सम्मानजनक अपवादों को छोड़कर, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे रहे हैं।
निजी संस्थान महंगी जमीनों और इमारतों में बड़े पैमाने पर निवेश करके छात्रों को मोटी फीस के जरिये निचोड़ रहे हैं, जिसका निर्धारण कथित तौर पर एक नियामक संस्था द्वारा किया जाता है, और बदले में वे समाज को जो देते हैं, वह निराशाजनक है। मुझे एक काफी पुराने तकनीकी कॉलेज के लिए कुछ साक्षात्कार देखने-समझने का अवसर मिला और वहां अध्यापन के लिए अपनी सेवाएं देने वाले अभ्यर्थियों/शिक्षकों का स्तर देखकर मैं दंग रह गया।
एमपी में शिक्षा का स्तर
मध्यप्रदेश के नर्सिंग कॉलेजों में एक बड़ा घोटाला अभी भी जारी है, जिसकी चौंकाने वाली जानकारी हाईकोर्ट की सुनवाई में भी सामने आई. एक कमरे वाले कॉलेज डिग्रियां बांट रहे थे. लेकिन किसी पर कार्रवाई नहीं हुई जो दुःखद है। हाल ही में सीबीआई द्वारा फर्जी दस्तावेजों के आधार पर मेडिकल प्रवेश की जांच की गई, जिसमें मेडिकल कॉलेजों में मेडिकल पाठ्यक्रम संचालित करने की लगभग शून्य सुविधाएं होने का खुलासा हुअ, वह भी ‘व्यापम वाले मप्र’ में ही। सीखने के स्तर का आकलन करने और कमियों की पहचान करने के लिए ‘परख’ रिपोर्टिंग दो साल पहले शुरू की गई थी, लेकिन छात्रों और समग्र शिक्षण मानकों की आलोचनात्मक जांच करने के लिए इससे पहले किए गए ‘असर’ के इसी तरह के प्रयासों ने भी भयानक निराशाजनक परिणाम दिखाए थे। सभी राज्य राजनीतिक विज्ञापन पर भारी मात्रा में सरकारी धनराशि खर्च करते हैं; कुछ राज्यों ने ‘सीएम राइज’ स्कूल शुरू किए हैं, लेकिन उनका ध्यान आलीशान इमारतें बनाने पर है, न कि शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने पर।
धर्मेंद्र प्रधान के शिक्षा मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट भारत सरकार और समस्त राज्यों के लिए, (शिक्षा विषय समवर्ती सूची में है), आंखें खोलने वाली है. जो मुख्यमंत्री अपने बुनियादी ढांचे — पुल, मेट्रो सेंट्रल विस्टा आदी के विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं, जिससे राजनेताओं को बड़ी ‘खुशी’ मिलती है, उन्हें अपनी ऊर्जा संसाधनों के जरिये एक मजबूत शिक्षा प्रणाली बनाने पर केंद्रित करनी चाहिए। पर ऐसा कहाँ होता हैं?
शिक्षक-प्रशिक्षण और सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों का चयन एक कठिन प्रक्रिया है। जो लोग शिक्षा को प्राथमिकता देकर अपना पेशा बनाते हैं, वे ही हमारा भविष्य बचा सकते हैं। इसके लिए हमें शिक्षा के पेशे को काफी हद तक अच्छा सम्मान देना होगा। शिक्षको को अच्छे वेतनमान, समाज में प्रतिष्ठा, जनता के सामने जिला कलेक्टरों द्वारा डांटे न जाने और जनगणना व चुनाव संबंधी जिम्मेदारियों के बोझ तले उनके दबे न रहने से ही संभव होगा।
सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि अगर स्वास्थ्य और शिक्षा की उपेक्षा की गई तो भारत का विकास नहीं हो सकता। न्यायालय ने तो यहां तक कहा कि अब समय आ गया है कि राज्यों को अपने बजट का 25 प्रतिशत शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता के बुनियादी ढांचे के लिए निर्धारित करने को कहा जाए।
हमारे राजनेता हर तरह के अंतहीन वादे करते रहते हैं, लेकिन शिक्षा जैसे मौलिक और महत्वपूर्ण क्षेत्रों को सुधारने की अपनी जिम्मेदारी से बचते रहते हैं। अन्यथा क्या कारण है की शिक्षा क्षेत्र के ये हालात है?
सख्त कदम उठाने की जरूरत
यदि आज भारत के शीर्ष लोग न्यायपालिका, शिक्षा, पत्रकारिता, अनुसंधान, चिकित्सा, ‘इसरो’ या बैंकिंग आदी क्षेत्र में ईमानदारी से कुछ अच्छे काम कर रहे हैं, तो इसका श्रेय भी लगभग पचास-साठ साल पहले उनके स्कूल के शिक्षकों को जाता है। अगर भारत को ‘विश्व-गुरु’ का दर्जा हासिल करना है, जो इतिहास में किसी समय शायद हमें हासिल था, तो प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक, शिक्षा की पूरी प्रक्रिया की आलोचनात्मक समीक्षा पर ध्यान केंद्रित करना होगा। वरना ‘परख’ के नतीजे भारत को परेशान करते रहेंगे और समाज का भविष्य अंधकारमय बना रहेगा। जरूरत है कि नई शिक्षा नीति के तहत सिर्फ पाठ्यक्रम बदलने से बहुत आगे देखा जाए और जरूरी व कठोर कदम उठाए जाए।





