रविवार के दिन डालिये पढ़ने की आदत, आईये पढ़ते हैं प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘बूढ़ी काकी’

“आज रविवार है छुट्टी का दिन। इस दिन हम सब थोड़े आराम के मूड में होते हैं वही कुछ मनोरंजन भी करना चाहते हैं। तो कैसा रहे अगर मनोरंजन के साथ कुछ ज्ञानवर्धन भी हो। आज के दिन हम आपके लिए ला रहे हैं प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद की कहानी ‘बूढ़ी काकी’। ये कहानी बेहद मार्मिक है..पारिवारिक तानेबाने में बुनी इस कहानी में वृद्धावस्था की मन:स्थिति के साथ अपनी ही दुनिया में रमे परिजनों का वर्णन है। तो आईये पढ़ते हैं ये मशहूर कहानी।”

                                                    बूढ़ी काकी

बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।


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श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।