रंग, रस और नज़ीर: “जब फागुन रंग झमकते हों” नज़ीर अकबराबादी की नज़र से होली

होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं..ये हमारे समाज की साझा संस्कृति का प्रतीक भी है। यह पर्व हमें बताता है कि खुशियों, प्रेम और उत्सव की कोई सीमा नहीं होती, न कोई भेदभाव। होली का हर रंग एकता का संदेश देता है और गुलाल की बौछार में प्रेम और सौहार्द्र घुला होता है। अगर हम अपने साहित्य को देखें तो पाएंगे कि हमारी कविता, शायरी और लोकगीतों में भी होली की इसी गंगा-जमुनी तहज़ीब को उकेरा गया है।

Shruty Kushwaha
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Holi 2025 : आज रंग है। और रंगों का कोई मज़हब नहीं होता। न कोई बाधा न बंधन। होली हमेशा से धार्मिक पर्व होने के साथ साथ एक सामाजिक उत्सव भी रहा है। ऐसा उत्सव जो सौहार्द्र और एकता का नाता जोड़ता है। और ये बात ठीक-ठीक समझनी हो तो हमें अपने साहित्य पर नज़र डालनी चाहिए। आज भी होली पर सबसे पहले नज़ीर अकबराबादी की नज़्म “तब देख बहारें होली की” याद आती है।

इस नज्म में होली के रंग, उल्लास और सर्वसमावेशी लोकसंस्कृति का अद्भुत चित्रण है। इसमें होली की उमंग, रंगों की छटा, लोकगीत, वाद्ययंत्रों की ध्वनि और सामाजिक समरसता को इतनी सुंदरता से दर्शाया गया है कि किसी का भी मन मोहित हो जाए। और खास बात ये है कि इस नज़्म को लिखने वाले शायर हिंदू धर्म से ताल्लुक नहीं रखते हैं। यही हमारी साझा संस्कृति है और इसी विरासत को हमें संजोकर रखना है।

नज़ीर अकबराबादी की नज़र से होली

नज़ीर अकबराबादी को “नज़्म का पिता” और “आम जनता का कवि” कहा जाता है। उन्होंने अपनी शायरी में लोकजीवन, त्योहारों, मेलों, ऋतुओं और आम आदमी के संघर्षों को खूब जगह दी है। वे सांप्रदायिक सद्भावना के बड़े समर्थक थे और उनकी कविताओं में धार्मिक भेदभाव कभी नहीं रहा। उन्होंने होली, दिवाली, रक्षाबंधन, ईद और बसंत जैसे त्योहारों पर कविताएं लिखी है। उनकी शायरी में फकीर, किसान, दुकानदार, कारीगर और आम आदमी के सुख-दुख को उकेरा गया है। तो आज रंगपर्व होली पर हम उनकी मशहूर नज़्म “तब देख बहारें होली ही” पढ़ते हैं और दुआ करते हैं कि हमारे समाज में सारे पर्व इसी तरह प्रेम और सद्भाव के साथ मनाए जाएं।

‘तब देख बहारें होली की’

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की

महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की
हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे

कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे

कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का

हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का

कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो

कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो

उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की

उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो

बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो
मय-नोशी हो बेहोशी हो ”भड़वे” की मुँह में गाली हो

भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की
और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के

हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के

कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो

माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो
लड़-भिड़ के ‘नज़ीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो

जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली


About Author
Shruty Kushwaha

Shruty Kushwaha

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।

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