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Sahityiki : साहित्यिकी में आज पढ़िये मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘आभूषण’

Sahityiki : आज शनिवार है और अपनी पढ़ने की आदत सुधारने के क्रम हम पढ़ेंगे सुप्रसिद्ध कहानीकार प्रेमचंद की कहानी। वीकेंड का समय होता है थोड़े आराम का, थोड़े मनोरंजन का। मनोरंजन में हम टीवी, फिल्में, आउंटिंग तो करते ही हैं लेकिन धीरे धीरे हमारी पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। पढ़ने का सिलसिला जारी रखते हुए आईये पढ़ते हैं ये कहानी।

आभूषण

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आभूषणों की निंदा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम असहयोग का उत्पीड़न सह सकते हैं पर ललनाओं के निर्दय घातक वाक्बाणों को नहीं ओढ़ सकते। तो भी इतना अवश्य कहेंगे कि इस तृष्णा की पूर्ति के लिए जितना त्याग किया जाता है उसका सदुपयोग करने से महान् पद प्राप्त हो सकता है।
यद्यपि हमने किसी रूप-हीना महिला को आभूषणों की सजावट से रूपवती होते नहीं देखा तथापि हम यह भी मान लेते हैं कि रूप के लिए आभूषणों की उतनी ही जरूरत है जितनी घर के लिए दीपक की। किन्तु शारीरिक शोभा के लिए हम तन को कितना मलिन चित्त को कितना अशांत और आत्मा को कितना कलुषित बना लेते हैं इसका हमें कदाचित् ज्ञान ही नहीं होता। इस दीपक की ज्योति में आँखें धुँधली हो जाती हैं। यह चमक-दमक कितनी ईर्ष्या कितने द्वेष कितनी प्रतिस्पर्धा कितनी दुश्चिंता और कितनी दुराशा का कारण है इसकी केवल कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन्हें भूषण नहीं दूषण कहना अधिक उपयुक्त है। नहीं तो यह कब हो सकता था कि कोई नववधू पति के घर आने के तीसरे दिन अपने पति से कहती कि मेरे पिता ने तुम्हारे पल्ले बाँध कर मुझे तो कुएँ में ढकेल दिया। शीतला आज अपने गाँव के ताल्लुकेदार कुँवर सुरेशसिंह की नवविवाहिता वधू को देखने गयी थी। उसके सामने ही वह मंत्रमुग्ध-सी हो गयी। बहू के रूप-लावण्य पर नहीं उसके आभूषणों की जगमगाहट पर उसकी टकटकी लगी रही। और वह जब से लौट कर घर आयी उसकी छाती पर साँप लोटता रहा। अंत को ज्यों ही उसका पति आया वह उस पर बरस पड़ी और दिल में भरा हुआ गुबार पूर्वोक्त शब्दों में निकल पड़ा। शीतला के पति का नाम विमलसिंह था। उनके पुरखे किसी जमाने में इलाकेदार थे। इस गाँव पर भी उन्हीं का सोलहों आने अधिकार था। लेकिन अब इस घर की दशा हीन हो गयी है। सुरेशसिंह के पिता जमींदारी के काम में दक्ष थे। विमलसिंह का सब इलाका किसी न किसी प्रकार से उनके हाथ आ गया। विमल के पास सवारी का टट्टू भी न था उसे दिन में दो बार भोजन भी मुश्किल से मिलता था। उधर सुरेश के पास हाथी मोटर और कई घोड़े थे दस-पाँच बाहर के आदमी नित्य द्वार पर पड़े रहते थे। पर इतनी विषमता होने पर भी दोनों में भाईचारा निभाया जाता था। शदी-ब्याह में मुंडन-छेदन में परस्पर आना-जाना होता रहता था। सुरेश विद्या-प्रेमी थे। हिंदुस्तान में ऊँची शिक्षा समाप्त करके वह यूरोप चले गये और सब लोगों की शंकाओं के विपरीत वहाँ से आर्य-सभ्यता के परम भक्त बन कर लौटे। वहाँ के जड़वाद कृत्रिम भोगलिप्सा और अमानुषिक मदांधता ने उनकी आँखें खोल दी थीं। पहले वह घरवालों के बहुत जोर देने पर भी विवाह करने को राजी नहीं हुए थे। लड़की से पूर्व-परिचय हुए बिना प्रणय नहीं कर सकते थे। पर यूरोप से लौटने पर उनके वैवाहिक विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया। उन्होंने उसी पहले की कन्या से बिना उसके आचार-विचार जाने हुए विवाह कर लिया। अब वह विवाह को प्रेम का बंधन नहीं धर्म का बंधन समझते थे। उसी सौभाग्यवती वधू को देखने के लिए आज शीतला अपनी सास के साथ सुरेश के घर गयी थी। उसी के आभूषणों की छटा देख कर वह मर्माहत-सी हो गयी है। विमल ने व्यथित हो कर कहा-तो माता-पिता से कहा होता सुरेश से ब्याह कर देते। वह तुम्हें गहनों से लाद सकते थे।
शीतला-तो गाली क्यों देते हो
विमल-गाली नहीं देता बात कहता हूँ। तुम जैसी सुंदरी को उन्होंने नाहक मेरे साथ ब्याहा।
शीतला-लजाते तो हो नहीं उलटे और ताने देते हो।
विमल-भाग्य मेरे वश में नहीं है। इतना पढ़ा भी नहीं हूँ कि कोई बड़ी नौकरी करके रुपये कमाऊँ।
शीतला-यह क्यों नहीं कहते कि प्रेम ही नहीं है। प्रेम हो तो कंचन बरसने लगे।
विमल-तुम्हें गहनों से बहुत प्रेम है
शीतला-सभी को होता है। मुझे भी है।
विमल-अपने को अभागिनी समझती हो
शीतला-हूँ ही समझना कैसा नहीं तो क्या दूसरे को देख कर तरसना पड़ता
विमल-गहने बनवा दूँ तो अपने को भाग्यवती समझने लगोगी
शीतला-(चिढ़ कर) तुम तो इस तरह पूछ रहे हो जैसे सुनार दरवाजे पर बैठा है !
विमल-नहीं सच कहता हूँ बनवा दूँगा। हाँ कुछ दिन सबर करना पड़ेगा।


About Author
श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।