गर्मी का मौसम है और तमाम दिक्कतों के साथ एक बड़ी समस्या टैनिंग की भी है। इससे बचने के लिए बाज़ार में कई तरह की सनस्क्रीन, क्रीम और स्किनकेयर मौजूद है। आज जहां हम सब अपनी त्वचा को धूप से बचाने की जुगत में रहते हैं, क्या आप यकीन करेंगे कि एक ज़माने में लोग चाहते थे कि उन्हें टैनिंग हो।
ये बात आपको ताज्जुब में डाल सकती है लेकिन एक दौर था जब सूरज से तपी हुई त्वचा यानी टैनिंग अमीरी और रुतबे की निशानी मानी जाती थी। और टैनिंग इस कदर ‘फैशन’ में थी कि जब सूरज की असली किरणें न हों तो कई लोग मशीनों का सहारा लेकर भी अपनी त्वचा को टैन कराते थे सांवला सुनहरा रंग देने के लिए। आइए, इतिहास के उन पन्नों को पलटते हैं जब टैनिंग सिर्फ फैशन नहीं, बल्कि सामाजिक हैसियत का प्रतीक थी, और मशीनों ने इस ट्रेंड को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।

गोरी त्वचा से टैन स्किन तक का सफर
19वीं सदी में यूरोप और पश्चिमी देशों में गोरी त्वचा सुंदरता और उच्च वर्ग का प्रतीक थी। वहीं, मजदूर वर्ग जो खेतों और कारखानों में धूप में मेहनत करता था, उनकी त्वचा सांवली हो जाती थी। उस समय अमीर लोग घरों में रहकर अपनी त्वचा को धूप से बचाते थे और उनकी गोरी दमकती हुई त्वचा उनकी संपन्नता का सबूत थी। लेकिन 1920 के दशक में यह धारणा उलट गई।
जानिए टैनिंग के फैशन की कहानी
टैनिंग को फैशन की दुनिया में मशहूर करने का श्रेय उस समय की मशहूर डिज़ाइनर कोको शनेल को जाता है। दरअसल 1923 में वे फ्रांस के समुद्रतटीय शहर फ्रेंच रिवेरा में छुट्टियां मनाने गई थीं। जब शनेल वहां से लौटीं तो उनकी त्वचा टैन हो चुकी थी। बस इसके बाद उनकी स्किन की इस सांवली चमक ने फैशन जगत में तहलका मचा दिया। फैशन प्रेमियों ने इसे एक नया ट्रेंड मान लिया। कुछ ही समय में टैन स्किन ‘हॉट’ और ‘स्टाइलिश’ घोषित कर दी गई। और अचानक ही टैनिंग अमीरी, महंगी छुट्टियां और ग्लैमर का प्रतीक बन गई। इसके बाद टैनिंग इस बात का को सबूत मानी जानी लगी कि व्यक्ति के पास इतना समय और धन है कि वह समुद्रतटों पर सनबाथिंग या विदेशी सैर-सपाटे का लुत्फ उठा सकता है।
नकली टैनिंग: मशीनों का जादू
बस फिर क्या..टैनिंग का क्रेज इतना बढ़ा कि हर कोई अपनी गोरी त्वचा पर ये टैन चाहने लगा, भले ही उनके पास समुद्र तट पर जाने का समय या साधन न हो। यहीं से शुरू हुआ फेक टैनिंग या फॉल्स टैनिंग का दौर। 1970 के दशक में टैनिंग बेड और टैनिंग बूथ जैसी मशीनों ने बाजार में धूम मचाई। ये मशीनें यूवी (अल्ट्रावायलेट) किरणों का इस्तेमाल करके त्वचा को कृत्रिम रूप से टैन करती थीं। लोग सैलून में जाकर इन टैनिंग बेड पर लेटते जहां मशीनें सूरज की नकली किरणें उत्सर्जित करतीं और कुछ ही मिनटों में त्वचा को सुनहरा रंग दे देतीं। त्वचा पर ये किरणें नकली धूप जैसा असर डालती हैं और स्किन को टैन कर देती थीं।
टैनिंग बेड में यूवी-ए और यूवी-बी किरणों का संयोजन होता था, जो प्राकृतिक सूरज की तरह मेलेनिन उत्पादन को बढ़ाता था। इन मशीनों की लोकप्रियता इतनी थी कि 1980 और 1990 के दशक में हॉलीवुड सितारों से लेकर आम लोग तक इनका इस्तेमाल करने लगे। कुछ सैलून में स्प्रे टैनिंग भी शुरू हुई, जहां रासायनिक घोल (जैसे DHA) को त्वचा पर छिड़ककर टैन का प्रभाव दिया जाता था, बिना यूवी किरणों के। यह तरीका उन लोगों के लिए मुफीद था जो यूवी के जोखिम से बचना चाहते थे।
टैनिंग का सामाजिक संदेश
उस दौर में टैनिंग..चाहे प्राकृतिक हो या कृत्रिम, सिर्फ त्वचा का रंग बदलना नहीं था। यह एक सामाजिक संदेश था कि आप उस वर्ग से हैं जो काम के बोझ से मुक्त है और अपनी मर्जी से जिंदगी जी सकते हैं। आपके पास खूब सारा पैसा, साधन और समय है जो आप समुद्रतटों पर गुजार सकते हैं। 1930 और 1940 के दशक में हॉलीवुड सितारों ने टैनिंग को अपनाया, और बाद में टैनिंग मशीनों ने इसे हर वर्ग तक पहुंचा दिया। समुद्र तट, सनबाथिंग, क्रूज़ छुट्टियां और अब टैनिंग सैलून..सब समृद्ध जीवनशैली का हिस्सा बन गए।
परिदृश्य में बदलाव
समय की आदत है बदलना। 21वीं सदी में फिर समय बदला और टैनिंग का आकर्षण कम हुआ है। त्वचा के कैंसर और समय से पहले बूढ़ी होने की चिंताओं ने लोगों को सनस्क्रीन और स्किन प्रोटेक्शन की ओर मोड़ दिया है। टैनिंग बेड के यूवी जोखिमों को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी चेतावनियां जारी की। अब एक बार फिर लोग स्वस्थ त्वचा को प्राथमिकता देने लगे और इसी के साथ टैनिंग..खासकर फॉल्स टैनिंग का चलन कम हो गया।
हर त्वचा सुंदर है
यहां जरूरी बात ये है कि हम समझें कि गोरी त्वचा हो या सांवली..प्राकृतिक रंगत सबसे बेहतर होती है। न आर्टिफिशियल टैनिंग कराना स्किन की हेल्थ के लिए अच्छा है न ही केमिकल्स से भरी क्रीम या ट्रीटमेंट से गोरी त्वचा पाने की कोशिश ही अच्छी है। हम स्वस्थ त्वचा के लिए स्किनकेयर करें लेकिन रंगत को लेकर फ़िक्रमंद होने की ज़रूरत नहीं। त्वचा का हर रंग सुंदर है और सुंदरता का कोई तय मापदंड नहीं होता। इसलिए अपनी स्किन में कंफरटेबल, सहज और सुंदर महसूस करना बेहतर है। सुंदरता के कई पहलू है और त्वचा के रंग से इसका कोई खास लेनादेना नहीं है। इसलिए अपनी त्वचा के साथ खुश रहें..सबसे जरूरी है।