रीतेश लिखते है कि इनके बीच अलौकिक सम्बंध था इतना गहरा की एक को खींचो तो बाक़ी गिर पड़े अधूरे थे एक ताना बाना था ।अजीब प्रेम त्रिकोण ।अजीब था ना कोई आदमी किसी स्त्री के साथ एक छत के नीचे बरसो रहे अलग अलग कमरों में पर थे एक साथ ।इमरोज कहते है कि हाँ उसकी ख़ुश्बू तो आती है l वो रातों को लिखती थी ओर इमरोज उनके लिए रात में एक बजे चाय बना कर रख देते थे अमृता लेखन में डूबी उसे पता तक ना चलता था पर मालूम था की चाय किसने बनायी है l
ओर एक तरफ़ साहिर थे जिसे अमृता बेहद चाहती थी कई सहिर उनका इंतज़ार करते थे चेन स्मोकर थे उनके जाने के बाद अमृता बची सिगरेट के बट को पिया करती थी। ”वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था। इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे।”
“अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं।।। चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो। उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया। इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है। वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं। मैं भी उन्हें चाहता हूँ।” वर्ष 1958 में जब इमरोज़ को मुंबई में नौकरी मिली तो अमृता को दिल ही दिल अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि साहिर लुधियानवी की तरह इमरोज़ भी उनसे अलग हो जाएंगे।
इमरोज़ बताते हैं कि गुरु दत्त उन्हें अपने साथ रखना चाहते थे। वेतन पर बात तय नहीं हो पा रही थी। अचानक एक दिन अपॉएंटमेंट-लैटर आ गया और वो उतने पैसे देने के लिए राज़ी हो गए जितने मैं चाहता था।मैं बहुत ख़ुश हुआ। दिल्ली में अमृता ही अकेले थीं जिनसे मैं अपनी ख़ुशी शेयर कर सकता था। मुझे ख़ुश देख कर वो ख़ुश तो हुईं लेकिन फिर उनकी आंखों में आंसू आ गए।
उन्होंने थोड़ा घुमा-फिराकर जताया कि वो मुझे मिस करेंगी, लेकिन कहा कुछ नहीं। मेरे जाने में अभी तीन दिन बाक़ी थे। उन्होंने कहा कि ये तीन दिन जैसे मेरी ज़िंदगी के आख़िरी दिन हों।तीन दिन हम दोनों जहाँ भी उनका जी चाहता, जाकर बैठते। फिर मैं मुंबई चला गया। मेरे जाते ही अमृता को बुख़ार आ गया। तय तो मैंने यहीं कर लिया था कि मैं वहाँ नौकरी नहीं करूँगा। दूसरे दिन ही मैंने फ़ोन किया कि मैं वापस आ रहा हूँ।
उन्होंने पूछा सब कुछ ठीक है ना। मैंने कहा कि सब कुछ ठीक है लेकिन मैं इस शहर में नहीं रह सकता। मैंने तब भी उन्हें नहीं बताया कि मैं उनके लिए वापस आ रहा हूँ। मैंने उन्हें अपनी ट्रेन और कोच नंबर बता दिया था। जब मैं दिल्ली पहुंचा वो मेरे कोच के बाहर खड़ी थीं और मुझे देखते ही उनका बुख़ार उतर गया।अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी। अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे