भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। देश के प्रख्यात समालोचक एवं जानेमाने साहित्यकार डॉ नागेंद्र सिंह “कमलेश” का कहना है कि विगत कुछ सालों में इस देश की संस्कृति में विकृति के घालमेल ने साहित्य को समाज से दूर कर दिया है। डॉ सिंह ने कहा कि जनमानस साहित्य पढ़ना नहीं चाहता, आज के सामाजिक संचार एवं प्रचार माध्यमों ने जनता को सुशिक्षित और कार्यक्षम बनाने की जगह अशक्त और मानसिक बीमार बना दिया है। इससे समाज में विचारों का संकट खड़ा हो गया है।
निजी प्रवास पर राजधानी पहुंचे डॉ नागेन्द्र सिंह कमलेश ने कहा कि लोगों में स्वविवेक और चिंतन का नितांत अभाव हो गया है। इससे समाज अलग-अलग श्रेणियों और वर्गों में विभाजित हो गया है, जो आपसी लड़ाई के स्तर तक पहुंच गया है। देश की राष्ट्रीयता पद, स्वपोषण, शोषण में लिप्त हो गई है। सब कुछ बनता हुआ दिख रहा है। नया है किंतु दूरगामी नहीं है।
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डॉ कमलेश ने कहा कि सत्य को शिव ने ही रोक लिया है, कुछ सुंदर नहीं दिख रहा, न हवा, न पानी, न प्रकाश। जीवन भी दूभर हो गया है। चंद लोग जहां धनाढ्य हो गए हैं तो दूसरी तरफ गरीबी और अमीरी की खाई और गहरी होती जा रही है। जनता को गुमराह किया जा रहा है। देश के वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक पतन पर चिंता व्यक्त करते डॉ सिंह ने कहा कि राजनीति अब सेवा की जगह स्वयं को चमकदार बनाने और काली कमाई का जरिया बन गई है। राजनेता समाज के कल्याणकारी जीवन और विकास का सम्यक और समर्पित मार्गदर्शन नहीं कर रहे, केवल दिवास्वप्न दिखाए जा रहे हैं, जो जमीनी हकीकत से दूर हैं।
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डॉ सिंह ने कहा कि राजनीतिक नेतृत्व को साफ चेहरे और सुचिता के साथ दोषारोपण की प्रवृत्ति से बचते हुए खुद को समाज के सामने नजीर बनानी होगी तभी जनता के लिए गणतंत्र की महत्ता प्रतिपादित होगी। डॉ कमलेश ने मनुवादी समाज में वर्ग था पर संघर्ष नहीं था, पर आज के वर्ग में राजनीति ने जातीय संघर्ष, घृणा, हिंसा पैदा कर दिया है। उन्होंने कहा कि इसे कौन संभालेगा, दिशाहीन राजनीति या भटकी हुई जनता।
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डॉ सिंह ने कहा कि साहित्यिक प्रबुद्धता, सह्रदयता और राष्ट्रीय चिंतन ही देश और समाज के इस बिगड़े हुए स्वरूप को नया मूल्य और नई दिशा दे सकता है। तभी इस देश में महाराणा, शिवजी और छत्रसाल होंगे। नानक, तुलसी, मीरा और कबीर होंगे। तभी इस देश में नेताजी, भगत और सुभाष और गांधी होंगे। वर्तमान साहित्य के प्रतिमान पर चिंता व्यक्त करते हुए डॉ नागेन्द्र सिंह कमलेश ने कहा कि साहित्यकारों को अपना दायित्व समझकर राजनीतिक पिछलग्गूपन का आश्रय छोड़कर कर कूकरी और सूकरी वृत्ति से दूर होना होगा। जब जल, वायु, धरती और साहित्य निर्मल हयोग तभी देश और समाज भी निर्मल होगा।