भोपाल। तबलों की थाप, घुंघरुओं की झनझन, संगीत की कानफोडू आवाजें, श्रोताओं और दर्शकों की तरफ से उठती वाहवाही और फब्तियां, नोटों की होती बारिश के साथ देश-विदेश में मकबूलियत और शौहरत। बावजूद इसके मन में पनपती एक खलिश। कुछ ठीक नहीं हो रहा है, की कसक। रुख बदला, दिल ने आवाज दी और दुनियावी कामयाबी की मेहफिलों से राब्ता तोड़कर रुहानियत और दिल के सुकून वाली उस मेहफिल में आ बैठे, जहां कुछ अच्छा हो रहा है, का यकीन दिल में बनने लगा है।
दास्तां शेख शम्मू की है। बरसों देशभर में मशहूर रहीं कव्वाला शकीला बानो भोपाली की महफिलों में अपना अहम किरदार निभाते रहे। बॉटल के ऊपर खड़े होकर डांस करने की महारत और हर छोटे-बड़े अदाकार की आवाज की मिमिक्री कर लेने की काबिलियत के चलते अमेरिका, लंदन, कनाडा समेत कई मुल्कों में कार्यक्रम भी दिए। लेकिन जब दिल उचाट हुआ तो सबकुछ छोड़कर चले आए और जमातों की खिदमत से नाता जोड़ लिया। जिन्हें वे मियां जान कहते हैं, उनका नाम है सैयद अब्दुल आबिद। उन्हीं ने शम्मू मियां को दीन की तरफ आरास्ता किया और असल जिंदगी के मायने सिखाए। भोपाल में आलमी तब्लीगी इज्तिमा का शुरूआती दौर था, शम्मू मियां ने अपने कुछ साथियों को जमा किया और एक टोली बनाकर बाहर से आने वाली जमातों की खिदमत का काम शुरू किया। बड़े और आधुनिक वाहनों का दौर नहीं था, इसलिए जमातों को तांगे और साइकिलों से इज्तिमागाह (ताजुल मसाजिद) पहुंचाने का काम शुरू किया।
बरसों पहले शुरू हुए इस सिलसिले को याद करते हुए शम्मू मियां कहते हैं कि उस दौर में जमातियों को छोडऩे या उनके लिए चायपान के इंतजाम के लिए हाथ-पैर जुड़ाई तक करना पड़ती थी लेकिन बरसों में बदले हालात का आलम यह है कि अब कतारबंद बड़े वाहन और सारादिन चलने वाले खाने-पीने के सामान का इंतजाम कैसे होता है, पता ही नहीं चलता। वे बताते हैं कि बाहर से आने वाली जमातों को रेलवे स्टेशन पर पहला इस्तकबाल उनसे और उनकी टीम से ही मिलता है। यहां लगने वाले कैम्प में उनके खाने, नाश्ते, चाय, पानी आदि के माकूल इंतजाम किए जाते हैं। इसके बाद उन्हें वाहनों से इज्तिमागाह (ईंटखेड़ी) तक पहुंचाया जाता है। शम्मू मियां की बरसों की खिदमत की आदत का आलम यह है कि पिछले साल इज्तिमा के दौरान उनका एक आपरेशन होना था, जिसके लिए उन्हें अस्पताल में भर्ती भी किया जा चुका था, लेकिन ऐन वक्त पर वे सबकुछ छोड़कर खिदमती कैम्प में जा बैठे। कहने लगे कि जिंदा रहेंगे, तो आपरेशन बाद में करवा लेंगे, इज्तिमा तो अब साल पूरा होने पर ही आने वाला है। शम्मू मियां की टीम में युवा, बुजुर्ग, बच्चों की बड़ी टोली जुड़ी हुई है, जो बाहर से आने वाले जमातियों के खाने पीने और उनके इज्तिमाह तक पहुंचाने की खिदमत में सारा दिन और पूरी रात शिद्दत से जुटे रहते हैं।