उनके पत्रकारिता जीवन में पत्रकारिता के सिद्धान्त, आदर्श और लक्ष्य भी परिवर्तित हो रहे थे। स्वतंत्रता के पूर्व का “जो घर बारे आपनों“ का शहीदी मनोभाव पत्रकारिता से विलुप्त होने की ओर बढ़ रहा था और पत्रकारिता घर बसाने का माध्यम बनता जा रहा था। पत्रकारिता में धन का प्रवेश बढ़ता जा रहा था और उस पर व्यवसायियों का नियंत्रण स्थापित होता जा रहा था। अद्भुत यह था कि पत्रकारिता के बदलते लक्ष्यों के बीच भी सत्यनारायण श्रीवास्तव का मन फकीरी में ही लगा रहा।
डॉ. शंकरदयाल शर्मा की पहल पर जब मालवीय नगर में पत्रकारों को नाम मात्र की कीमत पर बड़े और मूल्यवान प्लाट आवंटित किये गए तो अनेक पत्रकार प्लाट के मूल्य और मकान के निर्माण के लिये धन की व्यवस्था करने में सफल हो गए जबकि सत्यनारायण श्रीवास्तव अपने खादी के कुरते-पजामें में चप्पल चटकारते और निःस्वार्थ भाव तथा पत्रकारिता के आदर्शों के गीत गाते रह गये। जबकि उस समय कहा यह जाता था कि सत्यानारयण जी, जिन्हें अपनत्व से मित्र लोग “सत्तू भैया“ कह कर पुकारते थे, डॉ. शंकरदायाल शर्मा के अत्यंत विश्वासपात्र पत्रकार थे। यहां एक उदाहरण ही बताता है कि सत्तू भैया संबंधों को धन में रूपान्तरित करने की कला से या तो अनभिज्ञ थे अथवा कभी इस कलाकारी को उन्होंने अपने जीवन में प्रविष्ट नहीं होने दिया।
किन्तु ऐसा नहीं कि राजनेताओं से संबंधों को उन्होंने अपने लिए नहीं तो किसी के लिए भी लाभ नहीं उठाया। वे किसी भी पत्रकार और पत्रकार ही नहीं, किसी भी परिचित की समस्या सुलझाने किसी भी मंत्री के पास जा कर “अड़ जाने“ में संकोच नहीं करते थे। उस जमाने में श्री बलभद्र प्रसाद तिवारी नाम के बड़े खतरनाक पत्रकार माने जाते थे। खतरनाक इसलिए क्योंकि उनके साप्ताहिक अखबार में कब किसकी टोपी उछल जाये और कब कौन वस्त्रविहीन हो जाये, कहा नहीं जा सकता था। वे तलैया से इब्राहिमपुरा जाने वाले मार्ग पर एक छोटी सी जगह में रहते और छोटी सी प्रेस चलाते थे।
तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री गोविन्द नारायण सिंह के जमाने में उनका जर्जर निवास अपनी अंतिम सांसे गिनने लगा, तो बात यह आई कि उनके लिये सरकारी आवास आवंटित करवाया जाय। तब दैनिक भास्कर के संपादक तो श्री गोवर्धनदास मेहता होते थे, किन्तु भास्कर में संपादक के सारे कार्य और इतर कार्य भी श्री श्यामसुन्दर ब्यौहार देखते थे । श्री ब्यौहार और सत्तू भैया नरसिंहपुर जिलें के ही थे, अतः बचपन के मित्र थे। श्री तिवारी श्री ब्यौहार का अक्सर सांध्यकालीन साथ देते थे, जिसमें कभी-कभी सत्तू मैया भी शामिल रहते थे। श्री ब्यौहार ने सत्तू भैया को मित्रवत् आदेश दिया कि उन्हें श्री तिवारी को मकान आवंटित करवाना है। सत्तू भैया असमंजस में पड़े। श्री गोविन्द नारायण सिंह से उनके संबंध तो प्रगाढ़ थे, किन्तु श्री बलभद्र तिवारी ने अपने साप्ताहिक में श्री गोविन्द नारायण सिंह के व्यक्तिगत जीवन को लेकर क्रमिक रूप से कटु आलोचना छापी थी। खैर सत्तू भैया ने अपने पत्रकार मित्र के लिये साहस जुटाया और उन्हें लेकर गोविन्द नारायण सिंह जी के पास पहुँच गये। कहते है गोविन्द नारायण सिंह जी ने कहा “सत्तू“ तुम जिसे लेकर आये हो उसने अपने अखबार में हमें खूब गालियां दी हैं, मगर तुम लाए हो और हम ठाकुर तथा यहां ब्राम्हाण है तो हम मकान अलाट कर देते हैं। पता नहीं सत्तू भैया ने श्री गोविन्द नारायण सिंह के इस अहसान का बदला कैसे चुकाया, मगर बलभद्र तिवारी पर उन्होंने अपना अहसान कभी नहीं जताया।
पत्रकारिता में सत्तू भैया मुझसे बहुत वरिष्ठ थे, किन्तु मुझ पर उनका स्नेह प्रगाढ़ था। मैं पढ़ता और अखबारों में नौकरी करता तथा छोड़ता रहा था। अतः प्रारंभ में टुकड़ों- टुकड़ों में उनसे भेंट होती रहती थी। फिर जब एम.ए. करने के बाद मैं पूर्णकालिक पत्रकार हो गया, तब उनसे प्रायः भेंट होने लगी। मैं नहीं जानता कि उनका मेरे प्रति अपार प्रेम क्यों था, किन्तु कई प्रमुख राजनेताओं से मेरा प्रथम परिचय उन्हीं के साथ हुआ था। जब गोविन्द नारायण सिंह मुख्य मंत्री बने तब मैं भास्कर छोड़ कर नये निकले अखबार “मध्यप्रदेश“ में चला गया था। वे प्रायः कहीं मिलने जाते तो मुझे फोन कर लेते और अक्सर मैं उनके साथ जाकर मंत्रियों से मिलता एवं उन सलीकों को सीखता, जिनके माध्यम से समाचारों को निकाला जाता था। गोविन्द नारायण सिहं जी से मेरा पहला परिचय उन्हीं के साथ हुआ था और उन दोनों में अनौपचारिक प्रगाढ़ संबंध देख कर मैं चकित था। गोविन्द नारायण सिंह जी कई बार मेरे सामने ही उनसे मजाक कर लेते और अपने व्यक्तिगत जीवन की बातें भी कर लेते। जब तक मैं मध्यप्रदेश में रहा दोपहर में अक्सर हमारी भेंट हमीदिया अस्पताल वाले चौराहे पर कौने की पान की दुकान पर हो जाती। वहां वे सिगरेट पीते और मैं पान खाता। इस भेंट के लिए प्रायः हम एक-दूसरे को फोन कर लेते थे।
सुविधाजनक इसलिए था, क्योंकि कायस्थपुरा से निकलने वाले मध्यप्रदेश एवं नूरमहल मार्ग से निकलने वाले दैनिक जागरण के मध्य में हमीदिया अस्पताल का चौराहा पड़ता था। यहाँ वे बातों-बातों में कई राजनीतिक जानकारियाँ दे देते। यह सिलसिला कुछ समय तक ही चला, उसके बाद मैं “मध्यप्रदेश“ छोड़ कर पुनः दैनिक भास्कर में चला गया और सत्तू भैया भी किन्हीं अज्ञात परेशानियों से घिरे हुए लगने लगे।
लम्बे अरसे बाद उनसे प्रतिदिन और लम्बी मुलाकात एवं बातचीत का अवसर मुझे तब मिला जब वे 1977 से 1979 के मध्य कुछ समय के लिये दैनिक भास्कर में राजनीतिक रिपोर्टर के रूप में आए। राजनीति और राजनीतिज्ञों के बारे में उनकी गहरी जानकारी और अपनी रिपोर्ट को संदर्भ सहित विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता को देखा। परोक्ष रूप से उनके द्वारा निकाले गए निष्कर्ष प्रायः भविष्य में प्रत्यक्ष रूप धारण करते और उनकी चुटीली एवं चमकदार उक्तियां पाठक को आनन्दित करती। शायद यह वह काल था जब वह व्यवसायिक पत्रकारिता के दबावों से विचलित रहने लगे थे। उन्होंने अपने राजनीतिक संपर्काे एवं संबंधों के माध्यम से न केवल अपने मित्रों को लाभ पहुँचाया बल्कि कई राजनीतिक घटनाओं को प्रभावित भी किया। साथ ही कई राजनेताओं को फर्श से अर्श तक पहुँचाने में भी सहयोग किया। तब यह तथ्य प्रचारित था कि दैनिक जागरण के मालिक और प्रधान संपादक श्री गुरुदेव गुप्त के संसद सदस्य बनने में सत्तू भैया की प्रमुख भूमिका थी। राजनीतिज्ञों ने उनके निःस्वार्थ स्वभाव और लापरवाह जीवन का दोहन तो किया किन्तु उनके वास्तविक जीवन के बारे में शायद कोई चिन्ता नहीं की।
पिछले दिनों जब भोपाल में मालवीय नगर स्थित पत्रकार भवन को ढहाया गया, तब मुझें उनके कहे हुए शब्द याद आए। उन्होंने कहा था ये बूढ़े हो रहे पत्रकार पत्थर पर अपना नाम खुदवा लेने के लिए पत्रकार भवन बनवा तो रहे हैं, मगर पत्रकारों की आने वाली पीढ़ी को देखते हुए एक दिन यह झगड़े की जड़ बनेगा। यादवी संघर्ष में पत्रकार भवन तो नष्ट होगा ही पत्रकारों की प्रतिष्ठा को भी ले डूबेगा। अन्ततः वही हुआ। मुझे अग्रज की तरह स्नेह करने और पत्रकारिता के अनेक गुर बताने वाले मेरे सत्तू भैया की स्मृति को प्रणाम।