भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नायक भगवान बिरसा मुंडा की आज 125वीं पुण्यतिथि है। बिरसा मुंडा सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं रहे, बल्कि उन्होंने भारत में आदिवासी अधिकारों की चेतना का शंखनाद भी किया। उन्होंने बीस साल की उम्र से ही हजारों आदिवासियों को एकजुट किया। ब्रिटिश सरकार को आदिवासी क्षेत्रों में सुधारों के लिए मजबूर किया और उनसे प्रयासों ने छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट लागू करने में अहम भूमिका निभाई।
वे एक कुशल वक्ता और कवि थे और उनके विचार कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने। बिरसा मुंडा के विचार आज के समय में भी आदिवासी अधिकारों, सामाजिक समानता और पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रासंगिक बने हुए हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर देशभर में कई आयोजन हो रहे हैं।
भगवान बिरसा मुंडा: स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आदिवासी चेतना तक
झारखंड के खूंटी के उलिहातू गांव में 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा को ‘धरती आबा’ (पृथ्वी के पिता) के नाम से जाना जाता है। बिरसा मुंडा भारत के एक प्रसिद्ध आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया और आदिवासियों को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया। इसीलिए उन्हें भगवान कहा जाता है। उन्होंने 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और सामाजिक अन्याय के खिलाफ ऐतिहासिक विद्रोह ‘उलगुलान’ का नेतृत्व किया।
भगवान बिरसा मुंडा ने बीस वर्ष की आयु में ब्रिटिश शासन और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ आदिवासी समुदाय को संगठित किया। उन्होंने ‘बिरसाइत’ नामक धर्म की स्थापना की जो एकेश्वरवाद पर आधारित था और आदिवासी समाज में अंधविश्वासों को दूर करने पर जोर देता था। उनके नारे, “अबुआ राज सेतेर जना, महारानी राज टुंडू जना” (हमारा राज्य स्थापित हो, महारानी का राज्य समाप्त हो) ने आदिवासियों में स्वशासन की भावना जगाई।
आज भी प्रासंगिक हैं उनके विचार
बिरसा मुंडा ने आजीवन जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और मुंडा जनजाति को सामाजिक कुरीतियों से मुक्त करने के लिए जागरूकता फैलाई। 9 जून 1900 को रांची जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। भगवान बिरसा मुंडा की विरासत आज भी आदिवासी समुदायों के लिए प्रेरणास्रोत है और उनके विचार आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। आज देशभर में उनकी स्मृति में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।





