कर्नाटक में जाति सर्वेक्षण को लेकर विवाद अब हाई कोर्ट पहुंच गया है। लिंगायत, वोक्कालिगा और ब्राह्मण समुदायों सहित विभिन्न संगठनों ने राज्य सरकार के सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वेक्षण करने के अधिकार को चुनौती दी है। मंगलवार को मुख्य न्यायाधीश विभु बखरू और न्यायमूर्ति सीएम जोशी की खंडपीठ इस सर्वेक्षण पर अंतरिम रोक के अनुरोध पर सुनवाई करेगी, जो सोमवार से शुरू हो चुका है। याचिकाकर्ताओं ने डेटा संग्रह के तरीकों, संभावित जनगणना अतिक्रमण और राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर चिंता जताई है।
वरिष्ठ वकील प्रभुलिंग नवदगी ने तर्क दिया कि सरकार का सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों की पहचान करने का प्रयास संविधान के अनुच्छेद 342(ए) के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि जियो-टैगिंग और आधार कार्ड से डेटा जोड़ने की प्रक्रिया आधार अधिनियम का उल्लंघन करती है। वहीं, वरिष्ठ वकील जयकुमार पाटिल ने दावा किया कि यह सर्वेक्षण वास्तव में जनगणना है, जो केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है और राज्य सरकार को इसका अधिकार नहीं है। अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अरविंद कामथ ने भी यही राय दोहराई कि यह जनगणना है, जिसे राज्य नहीं कर सकता।
सर्वेक्षण का असली मकसद क्या
वरिष्ठ वकील विवेक सुब्बा रेड्डी ने कहा कि इस सर्वेक्षण का असली मकसद राजनीतिक उद्देश्यों और हेरफेर के लिए समुदाय-वार जनसंख्या का पता लगाना है। दूसरी ओर, राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने अंतरिम रोक के अनुरोध का विरोध करते हुए कहा कि पहले के सर्वेक्षणों पर भी ऐसी रोक नहीं लगाई गई थी। उन्होंने जोर दिया कि यह सर्वेक्षण है, न कि जनगणना, और राज्य को सामाजिक-आर्थिक डेटा एकत्र करने का अधिकार है, जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में स्थापित हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि यह सर्वेक्षण राज्य की कल्याणकारी योजनाओं के लिए आवश्यक है।
कानून से डेटा संग्रह की अनुमति
कर्नाटक राज्य स्थायी पिछड़ा वर्ग आयोग के लिए पेश वरिष्ठ वकील रविवर्मा कुमार ने कहा कि राज्य के कानून डेटा संग्रह की अनुमति देते हैं और यह 15 दिन का सर्वेक्षण आयोग द्वारा किया जा रहा है। हालांकि, आदिचुंचनगिरी के वोक्कालिगा मठ के प्रमुख स्वामी निर्मलानंदनाथ ने सरकार की 15 दिनों में 7 करोड़ की आबादी को कवर करने की क्षमता पर सवाल उठाए। उन्होंने बताया कि पड़ोसी राज्य तेलंगाना को 3.5 करोड़ की आबादी का सर्वेक्षण करने में 65 दिन लगे थे।





