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Wed, Dec 17, 2025

राष्ट्रपति-राज्यपाल के फैसलों पर समय सीमा तय करने का विरोध, केंद्र का सुप्रीम कोर्ट में बड़ा बयान

Written by:Vijay Choudhary
Published:
राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर समय सीमा तय करने का सवाल अब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के सामने है। केंद्र जहां इसे संविधान की मूल भावना और शक्तियों के बंटवारे का उल्लंघन मान रहा है, वहीं राज्य सरकारें इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती के लिए जरूरी बता रही हैं।
राष्ट्रपति-राज्यपाल के फैसलों पर समय सीमा तय करने का विरोध, केंद्र का सुप्रीम कोर्ट में बड़ा बयान

राष्ट्रपति और राज्यपाल को फैसले लेने के लिए समय सीमा में बांधने को लेकर शुरू हुई बहस अब सुप्रीम कोर्ट में निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है। केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखते हुए सुप्रीम कोर्ट में 93 पन्नों का विस्तृत जवाब दाखिल किया है। इसमें कहा गया है कि संविधान ने हर अंग- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के लिए शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा किया है। ऐसे में राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों की समय सीमा तय करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा। केंद्र ने तर्क दिया कि विधेयकों पर फैसला लेना कार्यपालिका का काम है, लेकिन यह विधायिका से जुड़ा हुआ दायित्व भी है। इस विशिष्ट प्रकृति के कार्य में न्यायपालिका का हस्तक्षेप उचित नहीं होगा।

तमिलनाडु के विधेयकों से शुरू हुआ विवाद

दरअसल, इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने तमिलनाडु सरकार के 10 विधेयकों को अपनी ओर से मंजूरी दे दी थी। ये सभी विधेयक राज्यपाल के पास लंबित थे। कोर्ट ने यह भी कहा था कि भविष्य में यदि तय समय सीमा तक राष्ट्रपति या राज्यपाल फैसला नहीं लेते हैं तो राज्य सरकार सीधे अदालत का दरवाजा खटखटा सकती है। यही आदेश विवाद का कारण बना। राष्ट्रपति ने इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट को 14 संवैधानिक सवाल भेजे। इन सवालों पर विचार के लिए चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता में 5 जजों की संवैधानिक बेंच गठित की गई है। इसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं।

सुनवाई का शेड्यूल और केंद्र का तर्क

इस मामले की सुनवाई 19 अगस्त से शुरू होगी और 10 सितंबर तक चलेगी। दोनों पक्षों को अपने तर्क रखने के लिए 4-4 दिन का समय दिया जाएगा। केंद्र ने अपने लिखित जवाब में कई अहम बिंदु रखे हैं। संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए फैसला लेने की कोई समय सीमा तय नहीं की। अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को विशेष शक्तियां देता है, लेकिन इन शक्तियों का प्रयोग कर राष्ट्रपति/राज्यपाल के पास लंबित विधेयकों को स्वीकृत माना जाना असंवैधानिक होगा। राज्यपाल को किसी मुकदमे में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता। संवैधानिक महत्व के सवाल पर सुनवाई कम से कम 5 जजों की बेंच में होनी चाहिए, जबकि 2 जजों की बेंच का आदेश इस मानक के खिलाफ था। राज्य और केंद्र के बीच विवाद केवल अनुच्छेद 131 के तहत उठाया जा सकता है। नागरिकों को उपलब्ध अनुच्छेद 32 का इस्तेमाल कर राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल नहीं कर सकती।

संवैधानिक बहस और संभावित असर

यह मामला केवल तमिलनाडु के विधेयकों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश की संवैधानिक व्यवस्था को प्रभावित कर सकता है। यदि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति और राज्यपाल को फैसले की समय सीमा में बांधने का आदेश देता है तो यह कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियों पर गहरा असर डालेगा। केंद्र का कहना है कि संविधान ने जानबूझकर इस प्रक्रिया को लचीला रखा है ताकि परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लिए जा सकें। वहीं, राज्यों का तर्क है कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को लंबे समय तक रोके रखना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करता है। संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह सुनवाई देश की संघीय संरचना और कार्यपालिका-न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर महत्वपूर्ण मिसाल स्थापित करेगी।

राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर समय सीमा तय करने का सवाल अब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के सामने है। केंद्र जहां इसे संविधान की मूल भावना और शक्तियों के बंटवारे का उल्लंघन मान रहा है, वहीं राज्य सरकारें इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती के लिए जरूरी बता रही हैं। 19 अगस्त से शुरू होने वाली सुनवाई न केवल इस विवाद का समाधान निकालेगी, बल्कि यह तय करेगी कि भारत की संघीय और संवैधानिक संरचना भविष्य में किस दिशा में आगे बढ़ेगी।