दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि “संवेदनशील नियुक्ति (Compassionate Appointment) का लाभ वर्षों बाद नहीं लिया जा सकता।” यह नियुक्ति एक आपातकालीन सहायता प्रणाली है, जिसे कर्मचारी की मृत्यु के तुरंत बाद परिवार को राहत देने के उद्देश्य से बनाया गया है। ये बातें दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फैसला सुनाने के दौरान कहा।
30 साल पुरानी घटना पर टिप्पणी
दिल्ली हाई कोर्ट ने ये टिप्पणी तब कि जब याचिकाकर्ता के पिता विजय कुमार यादव CISF में कांस्टेबल के पद पर तैनात थे। सितंबर 1988 में ड्यूटी के दौरान उनका निधन हो गया था। फरवरी 2000 में उनकी पत्नी ने संवेदनशील नियुक्ति के लिए आवेदन किया, जिसे योग्यता की कमी के आधार पर खारिज कर दिया गया। इसके 18 साल बाद, वर्ष 2018 में पुत्र ने फिर से आवेदन किया, यह कहते हुए कि अब वह बालिग और योग्य है। लेकिन विभाग ने जनवरी 2020 में उसे सूचित किया कि संवेदनशील नियुक्ति के लिए वह पात्र नहीं है, और याचिका खारिज कर दी गई।
कोर्ट का तर्क, ये अनंत अधिकार नहीं
जस्टिस सी. हरिशंकर और जस्टिस ओमप्रकाश शुक्ला की बेंच ने स्पष्ट किया कि “संवेदनशील नियुक्ति का उद्देश्य किसी कर्मचारी की असामयिक मृत्यु के बाद उसके परिवार को तत्काल राहत प्रदान करना है। यह सामान्य रोजगार नीति का हिस्सा नहीं है।” कोर्ट ने कहा कि “यह अधिकार अनंत काल तक जीवित नहीं रह सकता, जिसे वर्षों बाद भी जीवित रखा जाए।” “यह प्रक्रिया सरकारी सेवा में चयन का विकल्प नहीं, बल्कि तत्काल मदद की व्यवस्था है।” “जो परिस्थितियां किसी मृत्यु के बाद उत्पन्न होती हैं, वो समय के साथ समाप्त हो जाती हैं और उसी के साथ यह दावा भी समाप्त हो जाता है।”
याचिकाकर्ता की दलील और कोर्ट का उत्तर
याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि जब उनके पिता की मृत्यु हुई तब वह नाबालिग थे, और जब वे बालिग हुए तब आवश्यक योग्यता के साथ उन्होंने आवेदन किया। लेकिन हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “नियुक्ति का मकसद उस समय परिवार को संकट से उबारना होता है, ना कि 30 साल बाद किसी को रोजगार देना।”
क्या है संवेदनशील नियुक्ति?
संवेदनशील नियुक्ति का तात्पर्य होता है कि जब कोई सरकारी कर्मचारी सेवा के दौरान निधन हो जाए, और उसका परिवार अचानक आर्थिक संकट में आ जाए, तब उस परिवार के किसी एक सदस्य को तत्काल नौकरी देकर सहायता की जाती है। ये कोई अधिकार नहीं, बल्कि सरकारी नीति की सहानुभूति पर आधारित व्यवस्था है। यह फैसला अन्य लंबित मामलों में उदाहरण बनेगा। नियुक्ति प्रक्रियाओं की कानूनी समझ और समय सीमा को स्पष्ट करता है। यह बताएगा कि अदालतें न्याय और प्रशासनिक व्यावहारिकता दोनों का संतुलन बनाए रखने की कोशिश करती हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला संवेदनशील नियुक्तियों के दुरुपयोग और अनावश्यक विलंब को रोकने के लिए महत्वपूर्ण है। यह न केवल न्यायपालिका की सैद्धांतिक स्पष्टता को दर्शाता है, बल्कि सरकारी नियुक्तियों के लंबित मामलों के निपटारे में मार्गदर्शक भी बनेगा।





