इमरजेंसी के दौर में संजय गांधी सिर्फ देश के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी मां इंदिरा गांधी के लिए भी चिंता का कारण बनने लगे थे। एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, संजय की दखल प्रधानमंत्री कार्यालय के फैसलों पर सीधा असर डाल रही थी। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी तेज़ थी कि इंदिरा गांधी कई मामलों में उन्हें फैसलों से दूर रखने लगी थीं।
इमरजेंसी के समय संजय गांधी का राजनीतिक दखल अचानक तेज़ हो गया था। प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठ सचिव ने अपनी किताब में लिखा है कि इंदिरा गांधी उन्हें कई अहम चर्चाओं से दूर रखती थीं, लेकिन संजय के प्रभाव को पूरी तरह रोका नहीं जा सका। उन्होंने अपने सुझावों के जरिए राज्यों की सरकारों तक असर डाला। विधानसभा स्तर पर संविधान से जुड़े बदलावों के सुझाव भी उन्हीं के कहने पर आगे बढ़े। इस वजह से इंदिरा गांधी के आसपास एक असंतुलित सत्ता केंद्र बनने लगा था, जो प्रशासन और लोकतंत्र दोनों के लिए चुनौती बनता गया।

इंदिरा गांधी और संजय के बीच बढ़ती खटास
संजय गांधी की बढ़ती सक्रियता ने इंदिरा गांधी की परेशानी बढ़ा दी थी। वे सिर्फ प्रधानमंत्री की संतान नहीं, बल्कि एक समानांतर शक्ति केंद्र बन चुके थे। पीएम हाउस के भीतर उनके कहने पर अधिकारी काम करने लगे थे, जिससे इंदिरा के नियंत्रण में कमी आई। कई मामलों में जब संजय बिना सलाह लिए फैसले करने लगे, तब इंदिरा को उन्हें रोकने की जरूरत महसूस हुई। लेकिन तब तक उनकी ताकत इतनी हो चुकी थी कि रोकना आसान नहीं था। संजय के आसपास जो युवा नेताओं का गुट बन चुका था, वो सत्ता में हस्तक्षेप करने लगा था।
इमरजेंसी में ताकत और टकराव की कहानी
इमरजेंसी के दौरान संविधान के कई नियमों को दरकिनार किया गया और संजय गांधी की भूमिका इसमें सबसे ज्यादा चर्चा में रही। उनकी योजनाएं जैसे नसबंदी अभियान, झुग्गी हटाओ योजना, और चुनावों को टालने की मांग, सबने इंदिरा को परेशान किया। प्रधानमंत्री कार्यालय में कई मंत्री और अधिकारी भी धीरे-धीरे संजय की तरफ झुकने लगे थे। इंदिरा चाहती थीं कि सब कुछ संविधान के दायरे में रहे, लेकिन संजय की रफ्तार उन्हें असहज करती रही। यही वजह थी कि इमरजेंसी का दौर सिर्फ देश के लिए नहीं, बल्कि इंदिरा और उनके बेटे के रिश्तों के लिए भी निर्णायक मोड़ बन गया।