हिमाचल प्रदेश की बर्फीली चोटियों के बीच बसे किन्नौर जिले में एक अनोखा त्योहार मनाया जाता है, जिसका नाम ‘रौलान’ है। इस त्योहार की रहस्यमयी तस्वीरें और परंपराएं इन दिनों सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी हुई हैं। इसमें न तो आतिशबाजी का शोर होता है और न ही भारी भीड़, बल्कि यह त्योहार पुरानी मान्यताओं, आत्माओं और परियों की कहानियों को आज भी जिंदा रखे हुए है।
यह त्योहार उन अदृश्य शक्तियों को सम्मान देने के लिए है, जिनके बारे में माना जाता है कि वे पहाड़ों में इंसानों के साथ रहती हैं। हिमालय के कई इलाकों, जैसे उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में यह मान्यता गहरी है कि जंगल में आत्माएं और बर्फ में परियां बसती हैं।
कौन हैं सौणी परियां?
किन्नौर की स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, ‘सौणी’ वे परियां या दिव्य आत्माएं हैं जो सर्दियों के मुश्किल समय में ऊंचे पहाड़ों से उतरकर गांवों की रक्षा करती हैं। वे ग्रामीणों की संरक्षक मानी जाती हैं और उनकी मौजूदगी समुदाय को एक सुरक्षा का एहसास कराती है। उत्तराखंड में ऐसी ही परियों को ‘आछरी’ कहा जाता है। जब वसंत का मौसम आता है और बर्फ पिघलने लगती है, तो माना जाता है कि ये परियां वापस अपने लोकों में लौट जाती हैं। रौलान त्योहार इन्हीं सौणी परियों को धन्यवाद देने और सम्मानपूर्वक विदा करने का एक अवसर है।
रौल और रौलाण की अनोखी रस्म
इस त्योहार का सबसे आकर्षक हिस्सा ‘रौल’ और ‘रौलाण’ की रस्म है। इसमें गांव के दो पुरुषों को पारंपरिक दूल्हा (रौल) और दुल्हन (रौलाण) के रूप में चुना जाता है। दोनों पारंपरिक किन्नौरी ऊनी पोशाक पहनते हैं। उनके चेहरे मुखौटों से ढके होते हैं और हाथों में दस्ताने होते हैं। दुल्हन बना पुरुष विस्तृत गहने, हार और सिर पर खास मुकुट पहनता है, जबकि दूल्हे का चेहरा लाल कपड़े से ढका होता है।
ये दोनों पात्र त्योहार के दौरान गांव में घूमते हैं, जोर-जोर से हंसते हैं, गाते हैं और कई रस्में पूरी करते हैं। उनकी पहचान को गुप्त रखा जाता है, जो इस परंपरा को और भी रहस्यमयी बनाता है।
नागिन नारायण मंदिर में विशेष नृत्य
त्योहार का मुख्य अनुष्ठान नागिन नारायण मंदिर में होता है। यहां रौल और रौलाण पारंपरिक वेशभूषा में प्रवेश करते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं और फिर एक धीमा और प्रतीकात्मक नृत्य करते हैं। ग्रामीणों का मानना है कि यह नृत्य इंसानों और सौणी परियों के बीच संवाद का एक माध्यम है। इस दौरान गांव के अन्य लोग भी मंत्रोच्चार और नृत्य में शामिल होकर अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं।
त्योहार के अंत में, गांव के बुजुर्ग अंतिम रस्में पूरी करते हैं। रौल और रौलाण को आशीर्वाद दिया जाता है और पूरा समुदाय आने वाले साल के लिए परियों से सुरक्षा का वरदान मांगता है। यह विदाई एक तरह का वादा होती है कि अगले सीजन में वे फिर से आएंगी।








