2022 में बीजेपी ने राजस्थान के किसान पुत्र जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति बनाकर जाट समुदाय को बड़ा संदेश देने की कोशिश की थी। हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में जाट वोटरों को लुभाने के लिए इसे मास्टरस्ट्रोक माना गया। धनखड़, जो पहले पश्चिम बंगाल के गवर्नर थे, को उनकी संवैधानिक समझ और जाट पहचान के चलते चुना गया। लेकिन तीन साल बाद, उनकी अचानक हटने की खबर और सरकार के साथ मतभेद की कहानियों ने इस रणनीति को झटका दिया है।
जाट खाप पंचायतों और चौपालों में धनखड़ का हटना सिर्फ एक प्रशासनिक फैसला नहीं, बल्कि बीजेपी पर अविश्वास की कहानी बन गया है। लोग इसे इस तरह देख रहे हैं कि बीजेपी जाट नेताओं को बड़े पद तो देती है, लेकिन असली ताकत और सम्मान नहीं। आईएनएलडी नेता अभय सिंह चौटाला ने इसे षड्यंत्र बताया, तो जेजेपी के दुष्यंत चौटाला ने राष्ट्रीय नुकसान। किसान नेता राकेश टिकैत ने चेतावनी दी कि बीजेपी के साथ जाने वाले जाट नेताओं का हश्र धनखड़ या सत्यपाल मलिक जैसा हो सकता है।
बीजेपी की जाट रणनीति अधूरी
पिछले एक दशक में बीजेपी ने जाट समुदाय को जोड़ने के लिए कई कदम उठाए। सत्यपाल मलिक, बिरेंद्र सिंह, जयंत चौधरी जैसे नेताओं को बड़े पद दिए गए, लेकिन ज्यादातर या तो पार्टी छोड़ गए या असरदार साबित नहीं हुए। हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी यूपी में बीजेपी की जाट वोटरों तक पहुंच गठबंधनों और बाहरी नेताओं पर टिकी है। 2020-21 के किसान आंदोलन ने इस दूरी को और बढ़ाया। बीजेपी का मूल आधार शहरी और गैर-जाट ओबीसी वोटरों में है, जिसके चलते वह जाट गांवों में गहरी पैठ नहीं बना पाई।
नई सोच की है जरूरत
धनखड़ की घटना ने बीजेपी के सामने बड़ा सवाल खड़ा किया है कि केवल बड़े पद देकर जाट समुदाय का भरोसा नहीं जीता जा सकता। जाट राजनीति खेती, खाप और सम्मान से जुड़ी है, जबकि बीजेपी का फोकस कल्याण योजनाओं और शहरी विकास पर है। अगर बीजेपी को उत्तर भारत में अपनी पकड़ मजबूत करनी है, तो उसे जाट गांवों में संगठन बनाना होगा, खाप पंचायतों से जुड़ना होगा और ऐसी आर्थिक नीतियां लानी होंगी जो किसानों के हित में हों। नहीं तो, धनखड़ जैसी घटनाएं बीजेपी की जाट रणनीति को कमजोर करती रहेंगी।





