रतलाम| हाल ही में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में एक मुस्लिम प्रोफेसर द्वारा संस्कृत विषय पढ़ाने को लेकर उठे विवाद के बाद फिर ये प्रश्न खड़े हो गए हैं कि क्या शिक्षक का भी कोई धर्म होता है, या धर्म के आधार पर किसी विषय के पढ़ने-पढ़ाने पर पाबंदी लगाई जा सकती है ? इस तरह की घटनाएं हमारे समाज की धार्मिक सहिष्णुता पर संदेह भी उपजाती है लेकिन जब हम वृहद संदर्भ में देखते हैं तो पाते हैं कि आखिरकार हम “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना”, इसी उक्ति पर टिके हुए हैं। तो आईये आज आपको मिलाते हैं एक ऐसे शख्स से जो इस बात को प्रमाणित करते हैं, ये हैं रतलाम जिले के जावरा में रहने वाले अनीस अनवर। 57 साल के अनीस के घर उर्दू में लिखी हुई श्रीमद् भागवत गीता सालों से रखी हुई है।
इस परिवार की तीन पीढ़ियों ने उर्दू में लिखी श्रीमद् भागवत गीता को सहेजा हुआ है। करीब 121 साल से ये गीता इनके परिवार के पास है और ये इसे बिल्कुल अपने धार्मिक ग्रंथ की तरह ही सम्मान से रखे हुए हैं। इस पुस्तक का अनुवाद 1898 में संस्कृत से उर्दू में मथुरा के पंडित श्री जानकीनाथ मदन देहलवी द्वारा किया गया था। मथुरा प्रेस से प्रकाशित इस ग्रंथ में श्रीमद् भागवत गीता का उर्दू व फारसी में अनुवाज है। उस समय इसकी कीमत एक आना यानी 6 पैसे थी। 230 पेज में इस गीता के 18 अध्यायों का संस्कृत से उर्दू अनुवाद है। एक आने का ये ग्रंथ आज अनमोल है, इसकी कोई कीमत नहीं है और अनीस व उनका परिवार भी कहना है कि इससे उन्हें बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ है और साथ ही ये इस बात का उदाहरण भी है कि सारे धर्मों के मूल में प्रेम, शांति व सौहार्द्र का संदेश ही दिया गया है। इनके परिवार ने इसे एक अनमोल विरासत की तरह बहुत सार संभाल से सहेजा हुआ है।