11 जुलाई से शिव के भक्तों का पावन महीना सावन शुरू हो चुका है। श्रद्धालु हरिद्वार, गोमुख, देवघर, इलाहाबाद, बनारस आदि से गंगाजल भरकर पैदल यात्रा करते हुए शिव मंदिर जाते हैं। यहां पर जल अर्पित करते हैं और मनोकामनाएं भी मांगते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को कावड़ यात्रा के नाम से जाना जाता है, जो कि सनातन धर्म में काफी ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दौरान सड़कों पर भक्तों की खचाखच भीड़ भी देखने को मिलती है। मान्यताओं के अनुसार, इस महीने भगवान विष्णु 4 महीने के लिए क्षीर सागर में विश्राम करने के लिए चले जाते हैं। उस वक्त भगवान शिव ही अपने भक्तों की रक्षा करते हैं।
वहीं, कावड़ यात्रियों द्वारा भी कंधे पर कावड़ रखकर ले जाया जाता है और शिवालयों में भगवान शिव पर जल अर्पित किया जाता है। इस मौके पर ज्यादातर कांवरिया भगवा वस्त्र पहनते हैं, जिस रंग का धार्मिक और आध्यात्मिक कारण होता है।
समर्पण और भक्ति का प्रतीक
आज हम आपको यह बताएंगे कि कावड़ को कंधे पर रखकर चलना क्यों आवश्यक होता है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि इसके पीछे पौराणिक मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं, जो कि भगवान शिव के प्रति अटूट समर्पण और भक्ति का प्रतीक है। यह श्रद्धालुओं के लिए एक प्रकार की तपस्या है। जब वह कावड़ को कंधे पर रखकर चलते हैं, इस दौरान उन्हें शारीरिक कष्ट भी होता है। इसके बावजूद, उनके मन में भगवान के प्रति आस्था बिल्कुल भी कम नहीं होती। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ऐसे भक्तों की तपस्या से भगवान शिव अति शीघ्र प्रसन्न होते हैं और उनके जीवन में चल रही समस्याओं को दूर करते हैं।
पौराणिक कथा
कावड़ यात्रा को लेकर शिव और रावण से जुड़ा रहस्य भी पौराणिक कथाओं में है, जिसके तहत यह माना जाता है कि रावण भगवान शिव का परम भक्त था, जिसने कैलाश पर्वत को उठाने का प्रयास किया था। इससे भगवान शिव क्रोधित हो गए थे। तब रावण ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए उन्हें प्रसन्न करने के लिए गंगाजल से उनका रुद्राभिषेक किया। केवल इतना ही नहीं, रावण ने ही पहली बार गंगाजल कावड़ में भरकर लाया। तब से ही कावड़ यात्रा की शुरुआत हुई, जिसे आज भी भोले के भक्तों द्वारा निभाया जाता है।
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