जब न साबुन था, न सर्फ, फिर भी राजाओं-रानियों के कपड़े चमचमाते थे, आखिर कैसे होती थी धुलाई?
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साबुन और डिटर्जेंट के आगमन से पहले, भारतीय लोग कपड़ों की सफाई के लिए प्राकृतिक पदार्थों जैसे नीम, रीठा, शिकाकाई और हल्दी का उपयोग करते थे। ये न केवल कपड़े साफ करते थे बल्कि उन्हें कीटाणुमुक्त भी रखते थे।
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रीठा, जिसे सोप बेरी भी कहा जाता है, कपड़े धोने के लिए प्रमुख रूप से इस्तेमाल होता था। इसके छिलकों से झाग उत्पन्न होता था, जो रेशमी और मलमल के कपड़ों को मुलायम और चमकदार बनाता था।
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आम लोग अपने कपड़े उबलते पानी में डालकर धोते थे और फिर पत्थरों पर पीटकर उनकी मैल निकालते थे। यह तकनीक आज भी भारत के कई धोबी घाटों में पारंपरिक रूप से उपयोग की जाती है।
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सफेद रंग का एक खास खनिज ‘रेह’ भी कपड़े धोने में काम आता था। इसमें सोडियम सल्फेट, मैग्नीशियम सल्फेट और अन्य तत्व होते थे, जो कपड़ों को प्रभावी रूप से साफ और कीटाणुमुक्त रखते थे।
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नदियों और समुद्र के पानी में मौजूद प्राकृतिक सोडे का उपयोग भी कपड़े धोने में किया जाता था। साथ ही, राख और मिट्टी से भी सफाई की जाती थी, जो बर्तनों और शरीर की सफाई के लिए भी प्रचलित थी।
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राजघरानों के महंगे और कीमती कपड़े विशेष धोबियों द्वारा रीठा के झाग और नैच्रल प्रोडक्ट से धोए जाते थे, जिससे वे चमकदार और सुरक्षित बने रहते थे।
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1888 में भारत में पहली बार साबुन का इन्डस्ट्रीअल पर्डक्शन हुआ। ब्रिटिश कंपनी लीवर ब्रदर्स ने इसे बाजार में उतारा और बाद में गोदरेज और टाटा जैसी भारतीय कंपनियों ने भी इस इंडस्ट्री में कदम रखा।
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भारत में डिटर्जेंट 20वीं सदी के मध्य में हुआ। 1960 के दशक में हिंदुस्तान लीवर ने ‘सर्फ’ को बाजार में उतारा, जिसने साबुन से ज्यादा प्रभावी और सस्ता ऑप्शन बनकर लोकप्रियता हासिल की।
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