महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में स्थित प्रसिद्ध हिल स्टेशन माथेरान को ‘ईको सेंसिटिव जोन’ घोषित किया गया है, जहां पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से मोटर वाहनों की अनुमति नहीं है। लेकिन इसका नतीजा यह हुआ है कि आज भी यहां पर्यटकों को हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा में ले जाया जाता है। यानी एक इंसान, दूसरे इंसान को खींचकर पहाड़ी रास्तों पर ले जाता है। यह दृश्य किसी पुराने ज़माने का नहीं, बल्कि वर्ष 2025 का है। यही तस्वीर जब सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंची, तो मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और दो अन्य जजों की बेंच ने तीखी प्रतिक्रिया दी।
माथेरान मामले पर सुप्रीम कोर्ट सख्त
बुधवार को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रथा पर नाराजगी जताते हुए कहा कि यह हमारे संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, जो हर नागरिक को बराबरी और सम्मान से जीने का अधिकार देता है। कोर्ट ने टिप्पणी की, “बहुत ही अफसोसनाक है कि आज भी हमारे देश में ऐसा काम हो रहा है। क्या हम वाकई संविधान में दिए सामाजिक और आर्थिक न्याय को समझते हैं?” कोर्ट ने खुद ही जवाब भी दिया – “शायद नहीं।” जजों ने यह भी याद दिलाया कि 45 साल पहले इसी तरह के मामले में कोर्ट ने पंजाब के साइकिल रिक्शा चालकों को बेहतर जीवन देने का आदेश दिया था, लेकिन बदलाव आज तक नहीं हुआ।
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को स्पष्ट निर्देश देते हुए कहा कि अब और देरी नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने 6 महीने के भीतर एक योजना लाने को कहा, जिसमें हाथ से रिक्शा खींचने वालों को ई-रिक्शा उपलब्ध कराए जाएं। कोर्ट ने सुझाव दिया कि सरकार चाहे तो ई-रिक्शा खुद खरीदकर इन लोगों को किराए पर दे सकती है, जिससे उनकी रोजी-रोटी भी चलेगी और उन्हें सम्मान से जीने का अधिकार मिलेगा।
कोर्ट ने गुजरात की “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” योजना का उदाहरण भी दिया, जहां आदिवासी महिलाओं को ई-रिक्शा देकर आत्मनिर्भर बनाया गया है। अंत में कोर्ट ने कहा कि यह सिर्फ एक रिक्शा खींचने वाले की बात नहीं है, बल्कि इंसानियत और संवैधानिक मूल्यों की बात है। मुख्य न्यायाधीश ने दो टूक कहा, “ऐसी अमानवीय परंपराएं अब खत्म होनी चाहिए। ‘हम भारत के लोग’ में हर नागरिक की गरिमा शामिल है।”





