प्रिय पाठक ,
म���ं अब निन्म पैराग्राफ में जो लिखने वाला हूँ वो प्रत्येक पंक्ति निदा फ़ाज़ली की शायरी में दिखाने का प्रयास करूंगा .
मनुष्य के जूझने की क्षमता को सलाम करती हुई निदा की शायरी आम-आदमी का जीवन-कोलाज है . उन्होंने सामंतवाद , पित्र्सत्ता और महिलाओ को एक वस्तु मान लेने वाले समाजिक-तानेबाने के विरोध में लिखा और दबे-कुचले आदमी को उसकी ताकत याद दिलाई . उनकी शायरी आम-आदमी की ताकत का उत्सव है .
निदा ने खुद को भी कटघरे में रखा और हमेशा स्वयं को अपना फर्ज़ याद दिलाया. किताबी और हवाई बातों के बजाए अपने अनुभव बुने. उनकी शायरी में किसान का दर्द , बाज़ारवाद का विरोध , संकीर्ण जातीय ढांचे पे प्रहार के साथ इश्क के मासूम जस्बात मिलेंगे ।
निदा भारत को भीतर तक देखते थे , भारतीयता में यकीन सतही नहीं था , कि नारे लगा लिए और काम हो गया !
उनकी शायरी नारा नहीं pure एहसास है . पर R.K Laxman की तरह कॉमन मैन की व्यथा कहने वाले निदा ने ही ये भी कहा कि आज के वक़्त में सफल बिना रीढ़ का आदमी ही हो सकता है .हरतरफ अलग dimension से देखने वाली उनकी दृष्टि निराली थी .
साइंस कहता है प्रेम दो साल चलता है .उर्दू के ज़्यादातर कवियों के विपरीत निदा भी कहते हैं प्रेम ख़त्म हो जाता है . उन्होंने उम्मीद-जगाती हुई शायरी के बावजूद कडवा सच कहा .
निदा कभी देश का बटवारा नहीं स्वीकार पाए , बटवारा उनमे कसमसाता रहा . निदा को यकीन था सवाल करना डेमोक्रेसी के लिए ज़रूरी है . यही उन्होंने किया .
उन्होंने जंग के खिलाफ लिखा और जब कोई जवाब न मिला तो ख़ुदा की तरफ से भी खुद ही लिख डाला .
अब उपरोक्त पंक्तियाँ निदा की शायरी में दिखाने का प्रयास
निदा द्वारा आम आदमी को सर्वोपरी रखते हुए सलाम
· तुम हकीकत में
चारों तरफ फैलती भूख में
थोड़ी से भूख मिटा रहे हो
तुम खामोशी से
ज़िन्दगी के क़र्ज़ को
आसान किश्तों में चुका रहे हो
तुम्हे सलाम ..
खुद को कटघरे में खड़ा कर फ़र्ज़ याद दिलाते हुए
· तुम
उन्हें रोक तो नहीं सकते
जो
उजालों को काला करते हैं
छीन कर चाँद को
सितारों से
जंगलों में उछाला करते हैं
किसी बच्चे की
डोर में उलझी
एक तितली
छुडा तो सकते हो
बिजली घर के दुरुस्त होने तक
मोमबत्ती
जला तो सकते हो .
सामंतवाद और पित्र्सत्ता विरोध
· मेरी बेटी
इन खिलौनों की जुबानी
इक कहानी लिख रही है
इस कहानी में
वो खुद को
घर की रानी लिख रही है
और वो जो उसके घर में
काम वाली की है बेटी
उसको अपनी नौकरानी लिख रही है
वो नयी तहरीर में
बातें पुरानी लिख रही है
समाज में औरत को वस्तु मानना
· पहले वो
रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर
जिस्म से बिस्तर बन कर
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको
कमरे में घुटा अँधेरा
वक्त बेवक्त उठा लेता है
खोल लेता है बिछा लेता है
दबे कुचले आदमी की ताकत का उत्सव
· वो एक मामूली
छोटा मोटा
ज़र्रा सा पुर्जा
गिरे अगर हाथ से
तो लम्हों नज़र न आये
वो कब किसी कतार में था
मगर ये कल
इश्तेहार में था
उस एक मामूली
छोटे मोटे , जरा से पुर्जे ने
विशाल हाथी सी
धडधडाती
मशीन को बंद कर दिया है
अनुभव को शायरी में बुना
· उन्हें इतना पता है
बदन में मर्द के
जो निचला हिस्सा है
वही महंगाई के दौर में
सस्ती मुसर्रत(आनंद) है
· हिन्दू का हो दान या , मुस्लिम की खैरात
गेहू चावल दाल का क्या मजहब क्या जात
· क्रिकेट नेता एक्टर हर महफ़िल की शान
स्कूलों में कैद है , ग़ालिब का दीवान
किसान का दर्द
· मुशी धनपत राय तो टंगे हैं बन कर याद
सुनने वाला कौन है , होरी की फ़रियाद
बाजारवाद का विरोध
· अच्छी नहीं शहर के रास्तों से दोस्ती
आँगन में फैल जाए न बाज़ार देखना
· कहीं उड़ने दो परिंदे कहीं उगने दो दरख़्त
हर जगह एक सा बाज़ार न होने पाए
जातीयता पे प्रहार
· नीम तले दो जिस्म अजाने , चम चम बहता नदिया जल
उडी उडी चेहरे की रंगत , खुले खुले जुल्फों के बल
दबी दबी कुछ गीली साँसें , झुके झुके से नयन कँवल
नाम उसका दो नीली आँखें
ज़ात उसकी रस्ते की रात
मज़हब उसका भीगा मौसम
पता बहारों की बरसात
भारतीयता में गहरा यकीन
· गूँज रही है
चंचल चकियाँ
नाच रहे हैं सूप
आँगन आँगन
छम छम छम छम
घूँघट काढ़े रूप
हौले हौले
बछिया का मुंह चाट रही है गाय
धीमे धीमे
जाग रही है
आडी तिरछी धूप
· बूढा पीपल घाट का , बतियाये दिन रात
जो भी गुज़रे पास से , सर पे रख दे हाथ
देखने का अलग dimension . स्वीकारना कि प्रेम ख़त्म हो जाता है . सच कहने की हिम्मत
· मैं नहीं समझ पाया आज तक इस उलझन को
खून में हरारत थी या तेरी मुहब्बत थी
कैस हो कि लैला हो , हीर हो कि रांझा हो
बात सिर्फ इतनी है आदमी को फुर्सत थी
· देवता है कोई हम में
न फ़रिश्ता कोई
छू के मत देखना
हर रंग उतर जाता है
मिलने-जुलने का सलीका है ज़रूरी वर्ना
आदमी चंद मुलाकातों में मर जाता है
नारा नहीं लगाया , उम्मीद जगाती शायरी pure एहसास है
· बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे
· सुबह के अखबार ने मुझसे कहा
ज़िन्दगी जीना
बहुत दुश्वार है
सरहदें फिर शोरगुल करने लगीं
जंग लड़ने के लिए
तैयार है
पास आकर एक बच्चे ने कहा
आपके हाथों में जो
अखबार है
इस में मेले का भी
बाज़ार है
हाथी , घोडा , भालू
सब होंगे वहाँ
हाफ-डे है आज
कल इतवार है
आम आदमी की व्यथा
· बस यू ही जीते रहो
कुछ न कहो
सुबह जब सो के उठो
घर के अफराद (सदस्य) गिन लो
उजली पोशाक
समाजो इज्ज़त
और क्या चाहिए जीने के लिए
रोज़ मिल जाती है पीने के लिए
बस यू ही जीते रहो
कुछ न कहो
बिना रीढ़ का आदमी सफल है
· वो गाली खा के मुस्काराता है
हर ज़िल्लत को भूल जाता है
हर एक की हाँ में हाँ मिलाता है
उसे कामयाबी का रास्ता मिल गया है
वो बहुत जल्द
दूसरों को सताने के काबिल हो जाएगा
सवाल करना डेमोक्रेसी में ज़रूरी है
· सवाल ही हयात है
सवाल ही कायनात है
सवाल ही जवाब है
सवाल ही इन्किलाब है
कोई जवाब दे न दे
सवाल पूछते रहो
बटवारा स्वीकारा नहीं
· कराची एक माँ है
बम्बई बिछड़ा हुआ बेटा
ये रिश्ता प्यार का पाकीज़ा रिश्ता है जिसे
अब तक
न कोई तोड़ पाया है
न कोई तोड़ सकता है
गलत है रेडिओ , झूटी हैं सब अखबार की ख़बरें
जंग के खिलाफ
· दूसरों के लिए
लड़ने वालों के नाम नहीं होते
वो मुकामों से पहचाने जाते हैं
कलिंगा
व्यतनाम
अफगानिस्तान
बगदाद
दूसरों के लिए मरने वालों के नाम नहीं होते
वो गिनतियों में गिने जाते हैं
तीन लाख
एक लाख
बीस हज़ार
· मुदतों तक
जंग !
घर घर बोलती है
सरहदों पर फतह का ऐलान हो जाने के बाद
· सात समंदर पार से कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें फिर भेजे हथियार
उपरोक्त दोहा जंग के खिलाफ होने के साथ बाजारवाद की इन्तेहा दिखाता है . हम developing countries के बाशिंदे सिर्फ मुनाफा कमाने में उपयोगी औज़ार हैं कुछ developed मुल्कों के लिए.
ख़ुदा की तरफ से लिखा
· मस्जिदों मंदिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग
मैं
ज़मीनों को बेज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ
मैं ख़ुदा बन के
कहर ढाता हूँ
(मानस भारद्वाज- ये लेखक के निजी विचार हैं)