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वो दाल जिसे बंगाली हिंदू मांसाहारी मानते हैं जानिए इसका महाभारत से जुड़ा रहस्य

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भारतीय खानपान में दालें मुख्य रूप से शाकाहारी भोजन का हिस्सा होती हैं, लेकिन लाल मसूर की दाल को बंगाली हिंदू परंपरा में मांसाहारी दाल माना जाता है। इसका कारण धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक परंपराओं में छिपा है।

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हिंदू धर्म में भोजन को सात्विक, राजसिक और तामसिक में वर्गीकृत किया गया है। लाल मसूर की दाल को तामसिक माना जाता है क्योंकि इसे आमतौर पर प्याज और लहसुन के साथ पकाया जाता है, जो साधु-संतों और ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध है।

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Times Now की एक रिपोर्ट के अनुसार, लाल मसूर में मौजूद उच्च प्रोटीन मात्रा विधवाओं के लिए अनुपयुक्त मानी जाती थी, क्योंकि यह उनके हार्मोन को प्रभावित कर उन्हें अधिक सक्रिय बना सकती थी। इसलिए इसे त्यागने की परंपरा शुरू हुई।

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पौराणिक कथा के अनुसार, जब राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने ऋषि जमदग्नि की कामधेनु गाय को चुराने की कोशिश की, तो उसके खून से जहां-जहां बूंदें गिरीं, वहां मसूर दाल उग आई। तब से इसे मांसाहार का प्रतीक माना जाने लगा।

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गौड़ीय वैष्णववाद, जो बंगाली संस्कृति पर गहरा प्रभाव रखता है, मसूर दाल को मांस के समकक्ष मानता है। इसके अनुसार गहरे रंग वाली दालें जैसे लाल मसूर, अशुद्ध मानी जाती हैं और धार्मिक अनुष्ठानों में इनका उपयोग वर्जित है।

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एक मान्यता के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने स्वरभानु का सिर काटा, तो उसके रक्त से लाल मसूर का जन्म हुआ। इसलिए राहु से जुड़ी इस कहानी ने भी इस दाल को अशुभ और मांसाहारी की श्रेणी में ला खड़ा किया।

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इतिहासकारों के अनुसार, लाल मसूर दाल की उत्पत्ति मिस्र में हुई थी और यह मुगल शासकों के भोजन का हिस्सा भी बनी। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह दाल केवल धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक प्रभावों से भी जुड़ी रही है।

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जहां लाल मसूर दाल को पौष्टिकता के लिए सराहा जाता है, वहीं कुछ धार्मिक समुदाय इसे मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धता के लिए हानिकारक मानते हैं। यही विरोधाभास इसे एक रहस्यमय और चर्चित खाद्य पदार्थ बनाता है।

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