Sahityiki : कहते हैं ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है।’ साहित्य हमें जीवन जीने की राह दिखाता है और हमारी दृष्टि को विकसित करता है। लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, साहित्य कहीं पीछे छूट रहा है। भागमभाग भरी जिंदगी और समय की आपाधापी में हमारे पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। इसीलिए हर हफ्ते हम अपनी पढ़ने की आदत को बरकरार रखने की कोशिश करते है इस श्रृंखला में। आज साहित्यिकी में हम पढ़ेंगे मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी।
विजय
शहजादा मसरूर और मलका मखमूर दोनों शादी करके काफी खुश रहने लगे। मसरूर गाय चराता और खेत जोतता, तो वहीं मखमूर खाना पकाती और चरखा चलाती। इस तरह दोनों मिलजुल कर अपना जीवन चलाते थे। दोनों अपनी इस शादी-शुदा जिंदगी से काफी खुश थे। उनके जीवन में कोई फिक्र या परेशानी नहीं थी, लेकिन जैसे हर दिन एक जैसा नहीं रहता, उसी तरह उनके भी दिन बदलने लगे।
इसका कारण था मसरूर के दरबार का नजरबंद सदस्य बुलहवस खां। बुलहवस खां एक फसादी आदमी था, जिस वजह से उसे दरबार से नजरबंद (निगरानी में रखना) किया गया था। अब वह धीरे-धीरे मलका मखमूर का खास बन गया। मलका अपने सभी सलाह उसी से लेने लगी। उसके पास एक हवाई जहाज था, जिस पर बैठकर वो महज कुछ ही मिनटों में हजारों मील दूर दुनिया की सफर करता और खबर लाता था। कभी-कभी मलका भी उस जहाज पर बैठकर दूसरे देशों की सैर करती थी। बुलहवस कहता था कि बादशाह को अपना साम्राज्य अन्य देशों में भी फैलाना चाहिए। उन्हें दूसरे देशों पर कब्जा करके धन कमाना चाहिए। इसी तरह की कई बातें करके वह मलका के कान भरता और मलका भी उसकी बातों को ध्यान से सुनती। धीरे-धीरे मलका के मन में भी बुलहवस की बातें घर कर गई और उसे अभी अपना सुखी जीवन परेशान करने लगा।
मगर मसरूर एक शांतिप्रिय व्यक्ति था। धीरे-धीरे दोनों पत्नी-पत्नी के बीच कलह बढ़ने लगी और उनके रिश्ते में सिर्फ संदेह रह गया। इतना ही नहीं, उसके कुछ दरबारी भी उसका विरोध करने लगे। इन सबसे परेशान होकर एक दिन उसने सारी सल्तनत मलका के हवाले कर दी और खुद एक पहाड़ी इलाके में जाकर छिप गया।
इस बात को वर्षों गुजर गए। अब मलका अपने सल्तनत की रानी थी। दूसरे देशों पर कब्जा करने के लिए उसने एक बड़ी सेना तैयार कर ली थी। जिसे लेकर उसने कई पड़ोसी मुल्कों पर आक्रमण किया और उन्हें लूटा भी।
वहीं, इन सबके बीच उसके सल्तनत में अब पहले जैसी शांति नहीं थी। उसके लोग आपस में ही एक-दूसरे के विरुद्ध हो रहे थे। इन्ही में से एक था कर्णसिंह बुन्देला। उसकी अपनी ही एक अलग फौज थी, जो मलका के कारनामों के खिलाफ था। उसकी फौज कोई हथियार बंद सेना नहीं, बल्कि गाने-बजाने वाले लोगों से भरी हुई थी। एक दिन कर्णसिंह बुन्देला की फौज ने मलका के महल में चढ़ाई कर दी। मलका को लगा कि वो इन्हें आसानी से हर देगी। यही सोचकर मलका ने कर्णसिंह के काफिले पर हमला करने के लिए अपनी सेना भेजी। उसकी सेना ने जब वहां पहुंचकर कर्णसिंह और उसके काफिले के गीत सुनें, तो उनके दिमाग पर एक नशा छाने लगा। जिसने भी उनका गीत सुना नशे में खोकर बेहोश गया। मलका दूर से यह सारा माजरा बस देखे जा रही थी। फिर उसने खुद वहां पर जाने का फैसला किया, लेकिन मलका का हाल भी उसकी सेना जैसा ही हुआ। उन गीतों की आवाज सुनते ही वह भी मदहोश होकर बेहोश हो गई।
इसके बाद कर्णसिंह शाही महल में पहुंचता है और अपना गीत गाना बंंद कर देता है। जैसे ही उसका गीत बंद होता है, मलका होश में आती है और उसने कर्णसिंह से फिर से वही राग सुनाने की इच्छी जाहिर करती। मलका के साथ ही होश में आए, उसके सिपाहियों ने भी अपना मत देते हुए कहा कि उन्हें भी वही राग सुनना है।
उन्हीं के सल्तनत में सूबेदार लोचनदास भी रहता था। जब उसे कर्णसिंह के विजय की खबर मिली, तो उसने भी विद्रोह करने की ठानी। वह भी अपनी फौज लेकर राजधानी में आ गया। मलका ने भी अपने सैनिकों को युद्ध करने के लिए तैयार रखा हुआ था, लेकिन इस बार भी यही हुआ। बंदूक और तलवार जैसे हथियारों से बंधे उसके सैनिक सूबेदार लोचनदास की सरकस करने वाली फौज के सामने एक पल भी नहीं टिके। जैसे ही उसके सैनिक युद्ध मैदान में गए, वहां पर सुन्दर नर्तकियों, एक्टर, सर्कस और बाइस्कोप देखकर वो सभी अपना होश खो बैठे। सूबेदार लोचनदास की सरकस फौज बर्फिस्तानी चोटियां और बर्फ के पहाड़ से लेकर पेरिस का बाजार, लंदन का एक्सचेंज, अफ्रीका के जंगल, सहारा के रेगिस्तान और जापान की गुलकारियां जैसे सैकड़ों विचित्र आकर्षक दृश्य सर्कस में दिखा रहे थे। मलका की पूरी फौज युद्ध भूलकर बेतहाशा होकर इन दृश्यों को देखते हुए बेहोश हो गए। यहां तक कि मलका भी बेहोश हो गई।
वहीं, लोचनदास अपनी विजय की हुंकार लगाते हुए, जब शाही महल में आया, तो मलका और उसके सिपाही होश में आए। एक बार फिर से उन्होंने लोचनदास से वही तमाशा देखने की इच्छा जाहिर की।
इसी तरह अपनी दूसरी हार देखकर मलका मखमूर को बहुत दुख हुआ। वह पूरा दिन सोचती रहती कि, अगर इसी तरह चलता रहा, तो एक दिन उसका सारा राज्य उसके हाथ से निकल जाएगा। इन हालातों के लिए वह शाह मसरूर को कोसती भी थी। उसका सोचना था कि अगर मसरूर इस तरह सल्तनत से न जाते, तो आज उनकी ऐसी दशा नहीं होती। इसके बावजूद भी मलका में ठाना की वो अपनी सल्तनत को बचाने के लिए मसरूर की मदद नहीं लेगी।
मलका जब भी उन आकर्षक गीतों को सुनती और मनमोहक सर्कस के दृश्य देखती, तो उसे अपने सल्तनत की खबर नहीं रहती। वह सब कुछ भूलकर बस आनंद महसूस करती थी।
एक दिन बुलहवस खां ने लिखा कि, उसे उसके दुश्मनों ने घेर लिया है और वो चारों तरफ से हमला कर रहे हैं। बुलहवस खां के संदेश का मलका पर कोई असर न हुआ। मलका और उसकी फौज गाने सुनने और दृश्य देखने में ही व्यस्त थे।
इतने में दो सूबेदारों ने फिर से बगावत कर दी। इस बार मिर्जा शमीम और रसराज सिंह ने मिलकर राजधानी पर हमला किया। मलका की फौज में अब न पहले जैसी वीरता थी और न ही सल्तनत को बचाने की आग। गाने-बजाने और सैर-तमाशे ने उन्हें आराम से रहने वाला बना दिया था। वहीं, मिर्जा शमीम की फौज के सिपाही भी लड़ाकू नहीं थे। उसके किसी सिपाही के हाथ में फूलों के गुलदस्ते थे, तो किसी के हाथ में इत्र की खुशबूदार शीशियां थी। पूरे मैदान में बस मनमोहक खुशबू ही खुशबू फैली हुई थी। वहीं, दूसरी तरफ रसराज की सेना में किसी सिपाई के पास बर्फी और मलाई की टोकरी थी, तो किसी के पास कोरमे और कबाब थे। कोई खुबानी और अंगूर लिए खड़ा था, तो कोई इटली की चटनी और फ्रांस की शराब।
मलका की फौज जैसे ही मैदान में आती है, वह मिर्जा शमीम की सुगंधित खुशबू सूंघते ही मदहोश हो जाती है। उसकी सेना ने अपने तलवार फेंक दिए और रसराज के स्वादिष्ट पकवानों का लुत्फ लेने लगे। इस बार उसकी फौज का हाल भिखारियों जैसा हो गया था, जो तरह-तरह के खाने के लिए अपना हाथ फैलाए मांग रही थी। सब कुछ खाने के बाद उसकी पूरी फौज वहीं पर बेहोश होकर ढेर हो गई। यही हाल मलका का भी था। वह भी जी भर खा-पी लेने के बाद बेहोश हो गई।
अब मलका अपनी पूरी सल्तनत हार चुकी थी। वह अब इन लोगों की गुलामी करने लगी। कभी कर्णसिंह के दरबार में हाजिर लगाती, तो कभी मिर्जा शमीम की खुशामद करती थी। हां, कभी-कभी थक जाने या बीमार होने पर अकेले बैठकर घंटों रो लेती थी। वह मन ही मन चाहती थी कि मसरूर को मनाकर वापस ले आए, लेकिन अगले ही पल उसका मन बदल भी जाता था।
बुलहवस खां ने जब सल्तनत की यह कमजोरी देखी, तो उसने भी मलका से बगावत करने की ठानी। उसकी फौज ने अगले ही पल में मलका की फौज को हरा कर उसे बंदी बना लिया। गिरफ्तार करने के बाद मलका को एक कैदखाने में बंद करवा दिया गया। अब वह किसी का सेवक नहीं था, बल्कि खुद मलका का स्वामी बन गया था।
जिस कैदखाने में मलका को कैदी बनाया गया था, वह काफी विचित्र था। वह कैदखाना इतना लंबा-चौड़ा था कि वहां से कोई बाहर नहीं भाग सकता था। वहां पर कोई पहरेदार नहीं थे, न ही कैदी के हाथों-पैरों में कोई बेड़ियां थी। फिर भी मलका अपने पूरे शरीर को तारों से बंधा हुआ महसूस करती थी। वह उस कैदखाने में अपनी इच्छा से हिल भी नहीं सकती थी। कैदखाने में दिन के समय वह जमीन पर मिट्टी के घरौंदे बनाती थी और उन्हें महल की तरह समझती थी। पत्थरों के टुकड़ों को गहनों की तरह पहनती और कहती कि उसके सामने हर तरह के हीरे-जवाहरात फीके हैं।
ऐसे ही कई दिन गुजर गए। मिर्जा शमीम, लोचनदास सभी उसे हर वक्त घेर कर रखते थे। उन लोगों के मन में डर भी था कहीं वह कैद में रहते हुए भी शाह मसरूर तक कोई संदेश न भेज दे। वहीं, मलका भी उस कैद से निकल भागने की सोचने लगी।
एक दिन मलका बैठी-बैठी सोचने लगी कि, जो पहले उसके इशारों पर नाचते थे, अब वही उसके मालिक बन गए हैं। वो जैसा चाहते हैं उसे वैसे ही अपने इशारों पर नचाते हैं। उसे अब अफसोस होने लगा था कि उसे शाह मसरूर की बात मान लेनी चाहिए। वह दिन-रात बस इस कैदखाने से भागने और शाह मसरूर से मिलने का सोचती रहती। इसके बाद उनकी हर बात मानने की भी कसम खाती। खुद को कोसती कि उसके इस नमक हराम बुलहवस खां की बातें क्यों सुनी। यही सब सोचते-सोचते मलका रो रही थी कि अचानक उसने अपने सामने एक हंसी लिए चेहरे वाला पुरुष देखा, जिसने सादे कपड़े पहने हुए थे।
मलका ने आश्चर्यचकित होकर उससे पूछा- आप कौन? मैंने आपको पहले यहां नहीं देखा है।
पुरुष- मैं इसी कैदखाने की देखरेख करता हूं, लेकिन मैं यहां बहुत कम आता हूं। जब किसी कैदी की तबीयत खराब होती है, तो उसे यहां से निकलने में मैं मदद करता हूं।
मलका ने फिर पूछा- ‘आपका नाम क्या है?’
पुरुष ने जवाब दिया- ‘संतोख सिंह।’
मलका- ‘क्या आप मुझे इस कैद से बाहर निकाल सकते हैं?’
संतोख- ‘हां निकाल सकता हूं, लेकिन इसके लिए आपको मेरी बताई बातों को मानना होगा।’
मलका- ‘मैं आपके सारे हुक्म मानूंगी। खुदा के लिए मुझे बस यहां से बाहर निकाल दें। मैं पूरी उम्र आपकी शुक्रगुजार रहूंगी।’
संतोख- ‘आप कहां जाना चाहती हैं?’
मलका- ‘मुझे शाह मसरूर से मिलना है। क्या आपको पता है कि वो कहां रहते हैं?’
संतोख- ‘हां, मुझे पता है। मैं उन्हीं का नौकर हूं। उन्होंने ही मुझे इस काम पर रखा है।’
मलका- ‘तो मेहरबानी करके मुझे यहां से निकालें और मुझे उनके पास ले चलें।’
संतोख- ‘ठीक है। तो सबसे पहले तुम्हें ये रेशमी कपड़े और सोने के जवाहरात उतारकर फेंकने होंगे। बुलहवस ने इन्हीं जंजीरों से तुम्हें जकड़ा हुआ है। जो भी सबसे मोटा कपड़ा हो बस वही पहन लो। तुम्हारे पास जितनी भी इत्र की शीशियां हैं सब तोड़ दो।’
मलका ने ठीक वैसा ही किया जैसा संतोख ने करने के लिए कहा। इतने में वहां पर बुलहवस खां आया। रोते हुए कहने लगा- मेरी मालकिन मलका, मैं आपका गुलाम हूं क्या आप मुझसे नाराज हैं?
मलका ने उसकी तरफ देखा और गुस्से में मिट्टी के बनाए घरौंदों को पैरों से गिरा दिया। इसके बाद बुलहवस के शरीर का एक-एक अंग कटकर जमीन पर गिरने लगा। अगले ही पल में वह जमीन पर गिरा और मर गया।
यह देखकर संतोख ने कहा- ‘मलका क्या तुमने देखा? तुम्हारा दुश्मन कितनी आसानी से खाक में मिल गया।’
मलका- ‘काश! मैं यह बहुत पहले करती, तो आज ऐसे कैद में नहीं होती, लेकिन मेरे अभी और भी दुश्मन हैं।’
संतोख- ‘चलो कर्णसिंह के पास चलते हैं। जैसे ही वह अपना गीत गाना शुरू करे, तुम बस अपने कानों पर हाथ रख लेना।’
मलका कर्णसिंह के दरबार में गई। उसे देखते ही दरबार में चारों तरफ से गाने के धुन बजने लगें। मलका ने तुरंत अपने दोनों कानों को बंद कर लिया। इतना करते ही कर्णसिंह के दरबार में आग लग गई। उसके सारे दरबारी जलने लगे। यह सब देखकर कर्णसिंह दौड़ता हुआ मलका के पैरों में गिर पड़ा और बोला- इस गुलाम पर रहम करें, मालकिन। अपना कानों पर से हाथ हटा लें, वरना मेरी जान जा सकती है।
मलका- ठीक है, लेकिन मेरी शर्त है कि फिर कभी तू बगावत नहीं करेगा।
तभी कर्ण सिंह ने संतोख सिंह की तरफ गुस्से में देखा और उसे कोसते हुए दरबार से भाग गया।
इसके बाद संतोख सिंह ने मलका को लोचनदास के पास जाने के लिए कहा। उसे समझाते हुए कहा कि जैसे ही वह अपने करिश्मे दिखाना शुरू करेगा, तुम अपनी आंखें बंद कर लेना।
फिर मलका लोचनदास के पास गई। मलका को दरबार में देखते ही लोचन ने अपने सर्कस के कारनामे दिखाने शुरू कर दिए। इतने में मलका ने अपनी आंखें बंद कर लीं। ऐसा देखकर लोचनदास मलका को सर्कस देखने के लिए उकसाने लगा, लेकिन मलका ने अपनी आंखें न खोलीं।
फिर वह कांपता हुआ मलका के सामने आया और हाथ जोड़कर बोलने लगा- ‘मालकिन, कृपया अपनी आंखें खोलें और मुझ पर रहम करें। अगर मुझसे कोई गलती हुई है, तो उसे माफ करने का एहसान करें।’
उसकी बातों को सुनकर मलका ने कहा- ‘ठीक है, मैंने तेरी जान बख्श दी है, लेकिन अब फिर कभी यहां पर सिर उठाकर न चलना।’
लोचनदास ने मलका की बातें सुनते ही उसका शुक्रिया किया और वहां से अपनी जान लेकर भाग खड़ा हुआ।
संतोख सिंह फिर दरबार में आता है और मलका से मिर्जा शमीम और रसराज के पास जाने के लिए कहता है। मलका को समझाते हुए कहता है कि उनके पास जाते ही अपने एक हाथ से नाक बंद कर लेना और दूसरे हाथ से पकवानों को नीचे जमीन पर गिरा देना।
इसके बाद मलका रसराज और शमीम के दरबार में जाती है और ठीक वैसा ही करती है, जैसा संतोख ने बताया था। अगले ही पल मिर्जा शमीम और रसराज दोनों के सिर से खून गिरने लगा, उनके शरीर का अंग टूट कर गिरने लगा। इसी हालत में वे मलका के पास आते हैं और गिड़गिड़ाते हुए कहते हैं- ‘हुजूर, हम गुलामों पर रहम करें। अगर हमसे कोई गुस्ताखी हुई है, तो उसे माफ करें। दोबारा से ऐसी गलती नहीं होगी।’
मनका ने उनकी बातें सुनकर कहा- ‘रसराज को मैं जान से मारना चाहती हूं, क्योंकि उसके कारण ही मुझे जलील होना पड़ा।’
तभी संतोख सिंह ने वहां आकर मनका को ऐसा करने से रोक दिया। उसने मनका से कहा- ‘इसे जान से मारना समझदारी नहीं है। इस तरह के सेवक का मिलना कठिन होता है। यह सभी सूबेदारों में अपना काम करने में सबसे बेहतर है। इसलिए इसे जान से मत मारिए, बस अपने काबू में रखिए।’
मलका ने ठीक वैसा ही किया। उसने दोनों की जान बख्श दी और उन्हें चेतावनी देते हुए रिहा कर दिया। वे दोनों अपनी-अपनी जान लिए वहां से भाग गए।
मलका की जीत और आजादी की खुशी की खबर सल्तनत में फैल गई। फौज और उसके लोगों ने उसका खुले दिल से स्वागत किया। वहीं, दूसरी तरफ चारों बागी सूबेदार शहर में घात लगाकर छुप गए। फिर संतोख सिंह ने जब वहां के लोगों और फौज को मस्जिद में शुक्रिए की नमाज अदा करने के लिए ले गए, तो बागियों को वहां पर भी हार मिली। उनका एक भी इरादा सफल नहीं हुआ और वे वहां से चलते बने।
मलका ने संतोख सिंह का शुक्रिया करते हुए कहा- ‘मेरे पास इतनी ताकत या कोई शब्द नहीं, जिससे मैं आपके एहसानों का शुक्रिया अदा कर सकूं। अब आप मुझे शाह मसरूर के पास ले चलिए। मैं उनकी सेवा करूंगी और उन्हीं के साथ अपनी पूरी जिंदगी गुजारुंगी।’
संतोख सिंह- ‘ठीक है, लेकिन वहां तक पहुंचने का रास्ता बहुत कठिन है, तुम घबराना मत।’
वहां, चलने के लिए मलका ने बुलहवस का दिया हुआ हवाई जहाज मंगाया, लेकिन संतोख सिंह ने उससे जाने के लिए मना कर दिया। उसने कहा कि उसे पैदल ही अपना यह सफर तय करना है। मलका ने इस बार भी ऐसा ही किया।
वह दिन भर बिना कुछ खाए-पिए चलती रही। थकान के कारण उसकी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। उसके पैरों में छाले पड़ गए। उसने संतोख से पूछा कि अभी और कितनी दूर है?
संतोख- ‘अभी बहुत दूर है। तुम्हें पूरे रास्ते चुप रहना होगा, क्योंकि बातें करने से मंजिल और भी मुश्किल हो जाती है।’
रात होते-होते वे एक नदी के किनारे पहुंचे। वहां कोई नाव नहीं था। मलका ने संतोख से पूछा कि नाव कहां है?
संतोख ने उसे बताया कि उसे नदी भी चलकर पार करनी होगी।
मलका को नदी में जाने से डर लग रहा था, लेकिन फिर भी उसने हिम्मत जुटाई और नदी पार करने के लिए उसमें उतर पड़ी। अगले ही पल उसे मालूम हुआ कि वह नदी सिर्फ उसकी आंखों का धोखा थी। असलियत में वह बस एक रेतीली जमीन थी। जैसा-जैसे रात बीत रही थी मलका को लग रहा था कि यह सफर तय करते-करते वह मर ही जाएगी। फिर वो इसे पूरा जरूर करेगी।
सुबह तक वो एक पहाड़ी के सामने पहुंच चुके थें। उस पहाड़ की चोटियां आसमान से भी ऊंची थी। संतोख सिंह ने मलका से कहा कि शाह मसरूर इसी पहाड़ी की सबसे ऊंची चोटी पर हैं। फिर उससे पूछा- ‘क्या तुम इस पर चढ़ सकती हो?’
मलका ने हिम्मत दिखाते हुए कहा- ‘हां, मैं चढ़ने की पूरी कोशिश करूंगी।’
इसके बाद वह तेजी से उस पहाड़ पर चढ़ने लगी। पहाड़ के बीचो-बीच आकर वह थक गई और वहीं पर बैठ गई। तभी फिर से संतोख सिंह उससे कहता है कि एक बार फिर से ऐसी ही हिम्मत करो। उसकी बातें सुनकर मलका फिर से हिम्मत बांधती है और फुर्ती दिखाते हुए पहाड़ पर चढ़ने लगती है। जब वह पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंच जाती है, तो वहां की शुद्ध हवा में सांस लेते हुए उसे एक नई जिंदगी पाने जैसा एहसास होता है। जब उसने संतोख सिंह की तरफ देखा, तो वह आश्चर्य में डूब गई। उसके सामने खड़ा संतोख सिंह का चेहरा शाह मसरूर का बन गया था। उसे देखते ही मलका शाह के पैरों पर गिर गई और रोने लगी। फिर शाह मसरूर ने उसे उठाकर गले लगा लिया।