भिण्ड।गणेश भारद्वाज।
मनुष्य अपनी छिपी शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता। उसी शक्ति को जागृत करने के लिए उपासक लोग ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए साधना करते हैं। मानव-देह में एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है, जब तक वह मिल नहीं जाता इच्छायें उसे इधर से उधर भटकाती, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। सत्यामृत की प्राप्ति नहीं होती तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है, न कोई इच्छा तृप्त होती है न आत्मसन्तोष होता है। जबकि मनुष्य की सारी क्रियाशक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उसी की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहती है।
उक्त बातें पूज्यपाद अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री ने नगर स्थित व्यापार मण्डल धर्मशाला परिसर में चल रहे सात दिवसीय आध्यात्मिक प्रवचन के अवसर पर दूसरे दिन शनिवार को कहा।
स्वामी जी ने आगे बताया कि अपने आपको, अपनी चेतन सत्यता को पहचानना आसान बात नहीं है। विद्यमान परिस्थितियाँ ही धोखा देने के लिए पर्याप्त होती हैं, फिर जन्म-जन्मान्तरों के प्रारब्ध इतने भले नहीं होते जो मनुष्य को साधारण ही क्षमाकर दें। हमारा असली व्यक्तित्व इतना स्पष्ट है कि उसकी भावानुभूति एक क्षण में हो जाती है, वह परदों में नहीं रहता फिर भी वह इतना जटिल और कामनाओं के परदों में छुपा हुआ है कि उसके असली स्वरूप को जानना टेढ़ा पड़ जाता है। साधना, उपासना करते हुए भी बार-बार पथ से विचलित होना पड़ता है। ऐसी असफलतायें ही जीवन लक्ष्य में बाधक हैं।
महाराजश्री ने कहा कि, श्रद्धा वह प्रकाश है जो आत्मा की, सत्य की प्राप्ति के लिए बनाये गए मार्ग को दिखाता रहता है। जब भी मनुष्य एक क्षण के लिए लौकिक चमक-दमक, कामिनी और कंचन के लिये मोहग्रस्त होता है तो माता की तरह ठण्डे जल से मुँह धोकर जगा देने वाली शक्ति यह श्रद्धा ही होती है। सत्य के सद्गुण, ऐश्वर्य-स्वरूप एवं ज्ञान की थाह अपनी बुद्धि से नहीं मिलती उसके प्रति सविनय प्रेम भावना विकसित होती है उसी को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा सत्य की सीमा तक साधक को साधे रहती है, सँभाले रहती है।
पूज्य शंकराचार्य जी ने बताया कि, ईश्वर उपासना के बल पर ही मलिन चित्त अशुद्ध चिन्तन का परित्याग करके बार-बार परमात्मा के चिन्तन में लगा रहता है। बुद्धि भी जड़-पदार्थों में तन्मय न रहकर परमात्म ज्ञान में अधिक से अधिक सूक्ष्मदर्शी होकर दिव्य भाव में बदल जाती है। स्वयं का ज्ञान और तार्किक शक्ति इतनी बलवान नहीं होती कि मनुष्य निरन्तर उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक के यथार्थ और दूरवर्ती परिणामों की आत्मा के अनुकूल होने का विश्वास दे सके। तर्क प्रायः व्यर्थ से दिखाई देते हैं। ऐसे समय जब अपने कर्मों के औचित्य का अनौचित्य को परम प्रेरक परमात्मा के हाथों सौंप देते हैं तो एक प्रकार की निश्चिन्तता मन में आ जाती है। मन का बोझ हलका हो जाता है। जिसकी जीवन पतवार परमात्मा के हाथ में हो उसे किसका भय? सर्वशक्तिमान से सम्बन्ध स्थापित करते ही मनुष्य निर्भय हो जाता है, उसके स्पर्श से ही मनुष्य में अजय बल आ जाता है। व्यक्तित्व में सद्गुणों का प्रकाश और दिव्यता झरने लगती हैं। जीवन में आनन्द झलकने लगता है। यह सम्बन्ध और स्पर्श जब तक सत्य की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती तब तक श्रद्धा के रूप में प्रगट और विकसित होता है। वह एक प्रकार से पाथेय है इसलिये उसका मूल्य और महत्व उतना ही है जितना अपने लक्ष्य का, गन्तव्य का, अभीष्ट का, आत्मा, सत्य अथवा परमात्मा की प्राप्ति का।
इस अवसर पर डॉ. पी. पी. पचौरी, डॉ पी. के ओझा, श्री एस के द्विवेदी, सतीश शर्मा, श्रीमती शोभा शारदा पाण्डेय, श्री दशरथ मूढोतिया जी, एड. रवि शर्मा, विमल किशोर पाण्डेय, भूरे सिंह भदौरिया, रामदास भदौरिया, महेंद्र दीक्षित, नीशू चौहान, अशोक उपाध्याय, अशोक शर्मा, प्रमोद त्रिवेदी, नारायण सेवा समिति के पदाधिकारीगण एवं अन्यान्य लोगों ने माल्यार्पण कर धर्मलाभ प्राप्त किया।