भोपाल, डेस्क रिपोर्ट
“बोले कृष्ण से राधा प्यारी, सत्ता निर्मोही मैं प्रेम की मोही” के साथ मध्य प्रदेश के ताकतवर आईएएस अधिकारियों में शुमार और वर्तमान में पंचायत व ग्रामीण विकास विभाग अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद पर पदस्थ आईएएस मनोज श्रीवास्तव ने राधा-कृष्ण पर कई सीरीज तैयार की है, जिसमें उन्होंने राधा-कृष्ण की लीलाओं और अवतार के बारें में विस्तार से बताया है। इतना ही नही आईएएस ने गीता के सारों का भी बखूबी वर्णन किया है और प्रेम को अभीभूत बताया है। श्रीवास्तव ने अपनी इन कई सीरिज को फेसबुक पर पोस्ट किया है , जिनमें से पहले सीरिज का शीर्षक ‘जन्माष्टमी के आसपास राधा-कृष्ण की याद’ है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि इतिहास हमेशा सत्ता का जिक्र रही है जबकि राधा सत्य की प्रतिमूर्ति रही। आध्यात्मिक दुनिया में भले राधा को पहचान मिली रहो किंतु साहित्य की दुनिया में राधा को रहस्य बनाकर छिपा दिया गया और उन्हें रस की नायिका के रूप में दिखाया जाने लगा। समाज ने कृष्ण के अध्यात्म और साहित्य के अलावा कृष्ण की लीलाओं को किसी हद तक तो अपनाया किंतु इतिहास से राधा विस्मृत हो गई।
‘जन्माष्टमी के आसपास राधा-कृष्ण की याद’
राधा कृष्ण का रहस्य नहीं हैं, कृष्ण का रस हैं। आख़िरकार विष्णु के अवतार कृष्ण ने जिससे प्रेम किया होगा, वह कोई साधारण तरुणी तो न रही होगी। पर राधा की साधारणताओं ने ही उन्हें भारतीय चित्त की अधिकारिणी बनाया है। यह ठीक है कि वे कृष्ण की आत्म-गुप्ति हैं। कृष्ण का ह्रदय वहीं विश्राम करता है । पर उनकी एक लोकभूमिका भी है। कृष्ण की गीता की अनुल्लिखित प्रेरक शक्ति हैं वे। यदि गीता कहती है कि कर्म में ही तेरा अधिकार है, उससे उत्पन्न होने वाले फलों में कदापि नहीं तो राधा वे हैं जो कहतीं हैं कि सिर्फ़ प्रेम में ही उनका अधिकार है, उसके फलों का उन्होंने त्याग किया हुआ है। ऐसे कि जैसे कभी उन पर उनका अधिकार था ही नहीं। बल्कि प्रेम में भी उनकी एक अकर्तृ उपस्थिति है। यदि गीता सम्बन्धों के पार जाने का कहती है तो राधा सम्बन्धों के पार जा ही चुकी हैं। कृष्ण उनके क्या हैं? वे उनकी क्या हैं? ये उनके शिरीष, वे उनकी मौलश्री? ये उनके पारिजात, वे उनकी माधवी? ये उनके पारिभद्र, वे उनकी श्रीमंजरी? लेकिन क्या राधा श्रीकृष्ण की पत्नी हैं? या श्रीकृष्ण उनके पति हैं? महाभारत सिखाता है कि सत्य बड़ा है, सम्बन्ध नहीं।राधा और कृष्ण को यह बात कितने शुरू से पता है। इसलिए कि प्रेम ही उनका सत्य है। वह इतना मृदु है कि सम्बन्ध का भार भी नहीं उठा सकता। एक ऐसा प्रेम जो कोई प्रमाणपत्र नहीं प्रस्तुत करता।यदि कुछ पुराणों ने ब्रह्मा जी को राधा और कृष्ण का विवाह कराते हुए दिखाया भी तो वह भी इसी बात का सूचक ठहरा कि इस प्रेम में जो भी है वह सृष्टिकर्ता के आदि कवित्व का आदेश है। लोग सम्बन्ध होने पर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद चाहते हैं। मां बाप, सास-ससुर, चाचा-चाची, मामा-मामी, ताऊ-ताई, दादा-दादी,नाना-नानी का। लेकिन राधा और कृष्ण का प्रेम सामाजिकता में नहीं, निसर्ग में है। इसलिए इनके लिए तो सर्ग के, सृष्टि के रचयिता को ही होना है। ध्यान दें कि यह गंधर्व विवाह नहीं है। गंधर्व ब्रह्मा के सर्ग के ही अंग हैं। वे देवगायक मात्र हैं। ब्रह्मा बुजुर्ग हैं, पितामह हैं। लेकिन विदेह हैं। उनका एक पर्याय है ‘अशरीरी’। और एक पर्याय है उनका-सात्विक। उनका होना यह बताता है कि राधा कृष्ण के इस प्रेम की कोई मानव समाज वाली सीमा नहीं है और न किसी शरीरी के लिए यह संभव है कि वह उनके प्यार का गवाह बन सके। यह पूरा अग जग उनके प्यार को जानता है। यह ब्रह्मवैवर्त।यह किसी पुराण का ही नाम नहीं है। यह इस ब्रह्मांड को भी कहते हैं। सो उस पुराण के इस प्रसंग का अर्थ यही है कि राधा कृष्ण के प्रेम की सांस्कारिकता यह संपूर्ण निखिल, यह नक्षत्राकाश, यह मरुत्पथ, यह अमरापगा, यह द्यावापृथ्वी,यह शशिचक्र, यह सूर्य, यह चंद्र, यह कांतार, यह वट, यह बेला, यह जूही, यह अद्रि, यह कल्लोलिनी प्रमाणित करते हैं। राधा और कृष्ण को किसी कचहरी नहीं जाना।कोई दावा नहीं ठोंकना।कोई मुतालबा नहीं मांगना।वहाँ कोई हलफ़नामा नहीं है । न कोई मुख्त्यारनामा है। वहाँ बस वे दो हैं। और वह दुई भी ख़त्म हो गई है। वे एक ही हैं । राधा कोई अनंत प्रतीक्षा करती हुई प्रेमिका नहीं हैं। वे आत्मविभोर हैं क्योंकि कृष्ण उनका आत्म हैं। इस आत्म को ही गीता द्योतित करती है ।
कृष्ण को अध्यात्म और साहित्य के अलावा इतिहास ने भी किसी हद तक अपनाया, लेकिन राधा इतिहास से जैसे अदृश्य हो गईं। इतिहास वैसे भी सत्ता के लिए लड़ने वालों का होता है। राधा सत्ता नहीं, सत्य के लिए थीं।उनका सत्यार्पण ही उनकी पहचान थी। अध्यात्म की दुनिया में उनकी वह पहचान बनी भी रही लेकिन साहित्य की दुनिया में उनकी पहचान वाली वह अद्वितीयता ख़त्म हो गई।साधारणीकरण की कवि-कोशिशों ने राधा की साधारणता का इस तरह और इस क़दर उपयोग किया कि वे श्रृंगार रस की नायिका के रूप में रूढ़ हो गईं। राधा ने कृष्ण से प्रेम में जिस स्वतंत्रता का अनुभव किया था, वह अनुभव राधा के माध्यम से और उनके दृष्टांत की प्रेरणा से बहुत सी बोझिल मर्यादाओं, नैतिकताओं और बंधनों से मुक्ति का अहसास कराने के लिए एक स्थाई संदर्भ-बिन्दु हो गया। गृहस्थियों को चलाने के एकतरफ़ा बोझ से लाद दी गई पुरुष-प्रधान समाज की स्त्रियों के लिए राधा के रूप में एक विरेचन-भूमि उपलब्ध हुई। अध्यात्म ने उसे पूज्य समझा, उसे आराध्य माना जिसके प्रेम ने समाज की प्रचलित सरहदों की जंज़ीरों को अपने भावातिरेक से पिघला दिया। जैसे कृष्ण के जनमते ही कारागृह के द्वार खुल गये, हथकड़ी-बेड़ी टूट गयीं—वह अवतार हुआ ही इसलिए कि वह निष्प्राण मर्यादाओं की जानलेवा जकड़नों से हमें मुक्त करा सके—वैसे ही राधा के प्रेमाधिक्य ने भी स्त्री ह्रदय के द्वारा किये जा रहे निर्वाचन को आदर का स्थान दिलाया।मर्यादाओं को चुनौती जैसे द्रौपदी देतीं हैं, उनसे पहले राधा देती हैं। बस उनकी शैली में फर्क है। पर राधा के कारण ही कृष्ण द्रौपदी को समझ सके। गीता में भगवान कृष्ण जिस निश्चयात्मिका बुद्धि की बात करते हैं, राधा और भ्रमरगीत की गोपियाँ उसका साक्षात् प्रमाण हैं । अलबत्ता उन्हें निश्चयात्मक ह्रदय का कहा जाना और उपयुक्त होता।भक्तिकाल में राधा की यह हार्दिकता अक्षुण्ण रही। लेकिन जिसने सामाजिक रीतियों का अतिक्रम किया, उसे ही रीतिबद्ध कवियों ने अपनी कवि-परंपरा, कवि-समय और कवि-रूढ़ि से बांध दिया। तब राधा एक सब्जेक्ट से ज़्यादा एक आब्जेक्ट हो गयीं। यानी जिस तरह से द्रौपदी का आब्जेक्टिफिकेशन हुआ, उसी तरह से अंतत: राधा का भी हो गया। जैसे द्यूत सभा सामंती थी, वैसे ही रीतिकालीन दरबारों के सामंतों ने राधा के साथ व्यवहार किया। जैसे द्यूत सभा ने द्रौपदी को एक संपत्ति के रूप में दिखाकर उन्हें निर्वैयक्तिकीकृत( depersonalize)किया, वैसे ही नायिका भेद आदि में राधा का बारहा इस्तेमाल कर उनका व्यक्तित्व उनसे छीन लिया गया। राधा इनकी सामंती दुष्प्रवृत्तियों के औचित्यीकरण के लिए नहीं थीं।
राधा की प्रतिबद्धता जीवन भर की थी। बल्कि जनम जनम की थी। एक बाँसुरी की ध्वनि-सी जो राधा के मन में लगातार बजती रहती थी। वह ध्वनि थी क्या? वह जीवन का संगीत थी। जीवन जो बहुत सी औपचारिकताओं और पांडित्यों से, बहुत से निर्वचनों और उपाधियों से अधिक और आगे है।उस अनिर्वचनीय, उस अनाम्य, उस अपरिमेय, उस परिभाषातीत, उस वर्णनातीत, उस शब्दातीत, उस सीमातीत को बाँसुरी की तान में जज़्ब करती रहती थीं राधिका। राधा को पूरी दुनिया जिस एक में मिल गई थी, वह एक उन्हें फिर पूरी दुनिया में नहीं मिला।वह विश्वगोप्ता था, लेकिन फिर वह उसी विश्व में राधा के लिए गुप्त हो गया। वह जो अच्युत था, राधा के हाथों से बालू की तरह फिसल गया। कभी उस केशी ने राधा के केश संवारे थे, अब वही केशव कहाँ है जब राधा के केश उनकी प्रतीक्षा में रूखे हो आये हैं? वे चक्रपाणि समय के किस चक्र में उलझाकर चले गये हैं? द्वारिकाधीश की दुनिया के द्वार राधा के लिए नहीं हैं, यह राधा ने कब जान लिया था? वनमाली मथुरा को जाते हुए अपनी ग्राम्य पृष्ठभूमि पर एक पल के लिए भी शंका नहीं लाए, तब राधा ही क्यों ठिठक गयीं? क्या उन्हें ब्रज की मिट्टी से, उसके कुंजों और पुलिनों से, उसके पर्बतों और गलियों से इतना प्यार था कि वे वहीं रह गईं और इसी की कृतज्ञतास्वरूप वहां आज भी ‘राधे राधे’ ही कहा जाता है? कि वे ही हैं जो वृंदावनेश्वरी हैं, होंगे कृष्ण वृंदावनविहारी।