भोपाल, डेस्क रिपोर्ट| मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में विधानसभा उपचुनाव (Assembly By-election) की तारीख करीब आने के साथ राजनीतिक दलों (Political Parties) में अपनों से ही नुकसान का खतरा सताने लगा है। दोनों ही दलों को भितरघात (Fistula) का खतरा बना हुआ है।
राज्य के 28 विधानसभा क्षेत्रों में उप-चुनाव हो रहे हैं। भाजपा (BJP) ने जहां 25 दल-बदल करने वालों को उम्मीदवार बनाया है तो वहीं कांग्रेस (Congress) ने भी आधा दर्जन से ज्यादा दल-बदलुओं को बतौर उम्मीदवार चुनावी समर में उतारा है। इसके चलते दोनों ही दलों को असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। कई नाराज नेताओं ने पार्टी से ही तौबा कर ली।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों द्वारा दल-बदल करने वालों को उम्मीदवार बनाए जाने से दोनों ही दलों को अपनों के विरोध का लगातार सामना करना पड़ रहा है, वहीं चुनाव की तारीख करीब आने से असंतुष्टों के घातक बनने के आसार बन रहे हैं। इसका बड़ा उदाहरण ग्वालियर में देखने को मिला, जहां भाजपा छोड़कर सतीश सिकरवार कांग्रेस में शामिल हो गए और बतौर उम्मीदवार मैदान में हैं, मगर उनके परिजन अब भी भाजपा में ही हैं। भाजपा को आशंका है कि सतीश के परिजन भाजपा का साथ नहीं देंगे, इसीलिए सतीश के परिजनों को दूसरे क्षेत्रों में जाकर प्रचार के लिए कहा गया है।
वहीं दूसरी ओर, कई नेता जो टिकट के दावेदार थे, उन्होंने प्रचार से दूरी बना ली है। मतदान की तारीख करीब आने से उम्मीदवार और पार्टियों के लिए इन नेताओं पर नजर रखने के साथ उन पर सक्रिय रहने का दवाब डाला जा रहा है। उसके बाद भी कई नेता पार्टी की जरूरत के मुताबिक भूमिका निभाने से कतरा रहे हैं। बस यही स्थिति पार्टी के लिए चिंताजनक हो गई है।
भितरघात का खतरा किसी एक पार्टी को नहीं है, बल्कि दोनों प्रमुख दल इससे जूझ रहे हैं। पार्टी के प्रमुख नेताओं तक निचले स्तर से सूचनाएं आ भी रही हैं, मगर कोई कुछ नहीं कर पा रहा है। पार्टी नेतृत्व असंतुष्ट नेताओं को लगातार प्रलोभन दे रहे हैं कि चुनाव के बाद उनका पार्टी के भीतर कद बढ़ जाएगा, मगर नाराज नेता अपने पार्टी प्रमुखों की बात मानने को तैयार नहीं हैं।
एक असंतुष्ट नेता का कहना है कि वे दशकों से पार्टी के लिए काम करते आए हैं। उन्होंने कहा, क्या हमारा काम सिर्फ दरी बिछाना, झंडे लगाना और नेताओं की सभाओं की व्यवस्थाओं तक ही है। दूसरे दलों से लोग आएंगे और उम्मीदवार बनकर चुनाव जीतकर हमे निर्देशित करें, यह तो स्वीकार नहीं। इससे अच्छा है कि चुनाव में किसी के साथ मत खड़े हो, नतीजा जो आए वही ठीक, क्योंकि पार्टी का विरोध तो कर नहीं सकते।
राजनीतिक विश्लेषज्ञों का कहना है कि इस बार के चुनाव में दल-बदल बड़ा मुद्दा है। दोनों ही दल इस मामले में घिरे हुए हैं। हां, भाजपा इस मामले में ज्यादा उलझी हुई है। वास्तव में अगर भाजपा में असंतोष के चलते नेताओं ने पार्टी का साथ नहीं दिया तो नुकसान ज्यादा हो सकता है। अब देखना होगा कि पार्टी ऐसे लोगों को कितना मना पाती है। जो नेता महत्वाकांक्षी हैं, वे तो उम्मीदवार की हार में ही अपना भविष्य तलाशते हैं।