उत्तराखंड विधानसभा का मानसून सत्र गढ़—गैरसैंण में होने वाला था, लेकिन यह लोकतंत्र की गंभीर ज़रूरतों पर जनसंगठन की राजनीति भारी साबित हुआ। सदन केवल दो दिनों तक चल पाया। पहले दिन सिर्फ 1 घंटा 45 मिनट, दूसरे दिन मात्र 55 मिनट की कार्यवाही हुई। कुल मिलाकर 2 घंटे 40 मिनट की अवधि में पूरी सत्र व्यवस्था ठप हो गई। कहा गया कि लगातार विरोध और अव्यवस्था के कारण सत्र को पूर्व समय से समाप्त कर दिया गया।
विपक्ष को सत्र स्थगित करने की वजह गढ़ी—अदालत में मामला जारी थे नैनिताल ज़िला पंचायत चुनावों में कथित धांधली, जिसकी जांच की मांग विपक्ष ने उठाई। उन्होंने डेटा पर चर्चा करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन यह नहीं माना गया। इसके बाद विपक्ष ने सदन में ही धरना शुरू कर दिया, रात वही गुज़ारी और अगले दिन भी विरोध जारी रखा। इस दौरान सदन में बड़े पैमाने पर तहलका हुआ काग़ज़ उड़ाए गए, माइक हटाए गए, माइक तोड़े गए, और कई बार तालिका तहस नहस हुई।
जमकर की आलोचना
स्पीकर और अध्यक्ष ने जमकर आलोचना की, लेकिन किसी असर का इंतज़ार नहीं हुआ। इस सब व्याकुलता के बीच 550 से ज्यादा विधायक प्रश्न वाद सिद्धांत से बने इस सत्र में कतई उपयोग नहीं हो पाया — ना प्रश्न अवधि (Question Hour), ना शून्य अवधि (Zero Hour), और ना ही किसी महत्वपूर्ण चर्चा का मौका मिला। यह सदन जनता की आवाज़ सुनने में विफल रहा।
उम्मीदों की बर्बादी
फिर भी सरकार ने बिना किसी चर्चा के आठ नई विधेयक और ₹5,315 करोड़ के अतिरिक्त बजट को पारित करा दिया — इनमें अल्पसंख्यक शिक्षा संबंधी कानून और धर्मांतरण विरोधी प्रस्ताव शामिल थे। इस सब पर विधानसभा स्पीकर ने गंभीर शब्दों में कहा, “यह सत्र सार्वजनिक धन और जनता की उम्मीदों की बर्बादी थी। जबकि धराली जैसी तबाही पर चर्चा होनी चाहिए थी, विपक्ष ने राजनीतिक मुद्दों को प्राथमिकता दी।” उन्होंने कहा कि भारी बारिश और कठिन साधन हो कर भी कर्मचारी और विधायक उपस्थित हुए — लेकिन सब व्यर्थ चला गया।





