ग्वालियर।अतुल सक्सेना।
बीते दिनों जब प्रदेश पर सियासी संकट गहराया हुआ था तह ग्वालियर दक्षिण से कांग्रेस विधायक प्रवीण पाठक ने कमलनाथ के समर्थन में एक जोश भरी कविता लिखी थी।जिसके बाद से उन्हें संकटमोचक की उपाधि दी जाने लगी थी। आज कमलनाथ के इस्तीफे के बाद एक बार फिर पाठक ने एक शेर ‘आग ना लगाओ यूँ ,सत्य की राह पर ,जल गई जो पूरी ये तो राख कौन उठाएगा ” से अपनी बात कही है और ‘मौन इसलिए नहीं की शब्द कम हैं , मौन इसलिए हूँ की लिहाज़ बाक़ी है’ से अपनी बात को खत्म किया है। इस शेर में कही ना विधायक का दर्द छलकता हुआ नजर आ रहा है।वही उन्होंने कई बातें भी सोशल मीडिया के माध्यम से जनता से शेयर की है।
प्रवीण ने फेसबुक के माध्यम से लिखा है कि मध्य प्रदेश में नई सरकार का गठन राजनीति में नैतिक मूल्यों के पतन की पराकास्ठा का परिणाम है । आत्मिक रूप से दुखी हूँ इसलिए नहीं की सरकार चली गई दुखी इसलिए हूँ की राजनीति में समाजिक एवं लोकतांत्रिक मूल्यों का महत्व कम होता जा रहा है । क्या नज़ीर पेश कर रहे हैं हम लोकतंत्र में । उस जनमानस की क्या गलती है जिसने लोकतंत्र पर भरोसा जताया । बात यहाँ किसी भी दल की नहीं बात यहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उठे प्रश्नो की है । कौन देगा इन प्रश्नो के उत्तर कौन वापस लौटायेगा
पाठक ने आगे लिखा है कि अब जनता का लोकतांत्र पर भरोसा जो वर्षों से था । पहले उत्तराखंड फिर कर्नाटक फिर गोआ अब मध्य प्रदेश । विचार ज़रूर करें वो सब लोग चाहे वो किसी भी दल में आस्था रखते हों जो अखंड स्वस्थ लोकतांत्रिक राष्ट्र को देखना चाहते हों की क्या ये घटनाचक्र जो अब भविष्य की राजनीति को विरासत में मिलने वाला है । इतिहास के पन्नो पर अंकित होने वाला है क्या ये विरासत सशक्त लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए प्रासंगिक है अगर नहीं तो अब इसका उपाय क्या है विकल्प क्या है । भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है में नहीं जानता पर आज अपने सामने लोकतंत्र की हत्या देख कर शर्मशार हूँ आहत हूँ । उम्र कम है मेरे अनुभव भी कम है पर जनतंत्र में अच्छा बुरा क्या हे स्वस्थ लोकतंत्र क्या है समाजिक उत्थान के लिए सही संविधानिक व्यवस्था क्या होनी चाहिए ये में अच्छे से समझता हूँ और आप सब भी अच्छे समझते हैं । विचार करना आवश्यक है एक पार्टी के प्रतिनिधी के रूप में नहीं एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के नागरिक के रूप में ।। लिखने का काफ़ी मन है पर संस्कारो में बंधा हुआ हूँ ।
बीते दिनों शेयर की थी ये कविता
धरकर चरण विजित श्रृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं,
अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुडाते हैं।
नींद कहाँ उनकी आँखों में जो धुन के मतवाले हैं ?
गति की तृषा और बढती, पड़ते पग में जब छले हैं।
जिन्हें देखकर डोल गयी हिम्मत दिलेर मर्दानों की
उन मौजों पर चली जा रही किश्ती कुछ दीवानों की।
बेफिक्री का समाँ कि तूफाँ में भी एक तराना है,
दांतों उँगली धरे खड़ा अचरज से भरा ज़माना है।
अभय बैठ ज्वालामुखियों पर अपना मन्त्र जगाते हैं।
ये हैं वे, जिनके जादू पानी में आग लगाते हैं।