Gita Jayanti : श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध के मैदान में दिव्य उपदेश दिया गया था। यह संस्कृत में लिखित 700 श्लोकों का संग्रह है और लगभग 5,000 वर्ष पूर्व रचित मानी जाती है। इसे महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के भाग के रूप में लिखा था, और इसे एक अद्वितीय धार्मिक व दार्शनिक ग्रंथ माना जाता है, जो जीवन के गूढ़ प्रश्नों का उत्तर देता है।
गीता में आत्मा, परमात्मा, भक्ति, कर्म, जीवन आदि का वृहद रूप से वर्णन किया गया है। गीता को विश्व के सबसे महान ग्रंथों में से एक माना जाता है। गीता सिर्फ एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ भर नहीं है, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाने वाली एक अद्वितीय रचना है। इसे विश्व के महानतम ग्रंथों में से एक माना जाता है क्योंकि इसमें जीवन जीने की कला और आत्मिक उन्नति के मार्ग को सरलता से समझाया गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता की उत्पत्ति और महत्व
धार्मिक मान्यतानुसार, महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन अपने सगे-संबंधियों के साथ युद्ध करने को लेकर मानसिक द्वंद्व में पड़ गए, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्म, धर्म और भक्ति का ज्ञान दिया। यह संवाद अर्जुन के लिए ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए जीवन के मार्गदर्शन का स्रोत बना। इस संवाद को संजय ने अपनी दिव्य दृष्टि के माध्यम से धृतराष्ट्र को सुनाया था।
श्रीमद्भगवद्गीता न सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण है बल्कि यह कर्म, धर्म, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से जीवन के हर क्षेत्र में सही दिशा प्रदान करती है। इसे “जीवन का मैनुअल” भी कहा जाता है क्योंकि यह मनुष्य को अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है और आत्मिक शांति के लिए प्रेरित करता है। इसे पढ़ने से न सिर्फ आध्यात्मिक विकास होता है, बल्कि मानसिक संतुलन और जीवन की कला और सही मार्ग भी प्राप्त होता है।
गीता जयंती आज
महाभारत युद्ध के दौरान जब अर्जुन अपने कर्तव्य को लेकर संशय और मोह में डूबे थे तब भगवान श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का दिव्य ज्ञान दिया। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को न सिर्फ युद्ध के कर्तव्य के प्रति जागरूक किया, बल्कि जीवन के उच्चतम सिद्धांतों जैसे कर्म, भक्ति और ज्ञान का भी उपदेश दिया। यही कारण है कि मार्गशीर्ष एकादशी के दिन गीता जयंती मनाई जाती है, जो गीता के अमूल्य उपदेशों का सम्मान और उनके जीवन में महत्व को प्रकट करने का दिन है। गीता जयंती के दिन श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ और इसके श्लोकों पर चिंतन करने से जीवन को सही दिशा मिलती है और हम भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए ज्ञान को अपने जीवन में लागू कर सकते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के 10 महत्वपूर्ण श्लोक और उनके अर्थ
1. “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, अन्यानि संयाति नवानि देही।।”
(अध्याय 2, श्लोक 22)
अर्थ: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। इसीलिए ज्ञानीजन किसी की मृत्यु का शोक नहीं करते हैं। यह श्लोक आत्मा के अमरत्व को दर्शाता है।
2. “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।”
(अध्याय 2, श्लोक 47)
अर्थ: मनुष्य को केवल कर्म करना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। यह निष्काम कर्मयोग का उपदेश है। इस श्लोक का अर्ख है कि मनुष्य को कर्मों के फल के प्रति आसक्ति रहित होकर भगवान को अर्पित करने के भाव से कर्म करना चाहिए।
3. “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।”
(अध्याय 4, श्लोक 7)
अर्थ: जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेता हूँ। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि जब भी धर्म की हानि और अधर्म का उभार होता है, तब वह स्वयं अपने दिव्य रूप में प्रकट होकर धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतार लेते हैं। यहाँ भगवान यह संकेत देते हैं कि जब समाज में अधर्म और अराजकता बढ़ जाती है, तो वे भगवान के रूप में पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और न्याय की पुनर्स्थापना करते हैं।
4. “योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।”
(अध्याय 2, श्लोक 48)
अर्थ: योग में स्थिर रहते हुए कर्म करो, सफलता और असफलता में समान रहो। यही सच्चा योग है। इसका अर्थ है कि सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समभाव योग कहलाता है।
5. “न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।”
(अध्याय 3, श्लोक 5)
अर्थ: कोई भी क्षण भर के लिए बिना कर्म किए नहीं रह सकता। सभी जीव प्रकृति के गुणों द्वारा कर्म करने के लिए प्रेरित होते हैं। इस श्लोक का संदेश यह है कि मनुष्य को कर्म करने से भागना नहीं चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति के जीवन में कर्म आवश्यक हैं।
6. “अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।”
(अध्याय 4, श्लोक 40)
अर्थ: जो व्यक्ति अज्ञान और शंका में डूबा हो, वह न इस लोक में सुख प्राप्त कर सकता है, न परलोक में। इसका अर्थ है कि जीवन में सफलता और शांति पाने के लिए आस्थावान और सही ज्ञान होना जरूरी है। संदेहात्मक व्यक्ति न इस लोक में सुखी हो सकता है, न परलोक में। उसकी आत्मा हमेशा उलझनों और द्वंद्वों में बंधी रहती है जिससे वो व्यथित होता है।
7. “ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।”
(अध्याय 2, श्लोक 62)
अर्थ: विषयों के चिंतन से लगाव उत्पन्न होता है, लगाव से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध जन्म लेता है। यह श्लोक जीवन के मानसिक और भावनात्मक प्रभावों को समझाता है। जब व्यक्ति बाहरी भौतिक वस्तुओं में अधिक रुचि और आसक्ति दिखाता है, तो वह धीरे-धीरे उन वस्तुओं से जुड़ी इच्छाओं और अंततः क्रोध का शिकार बन जाता है।
8. “उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।”
(अध्याय 6, श्लोक 5)
अर्थ: मनुष्य को स्वयं अपनी आत्मा द्वारा उन्नति करनी चाहिए, और आत्मा को पतन की ओर नहीं ले जाना चाहिए। आत्मा ही मनुष्य का मित्र और शत्रु होती है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपने मानसिक और शारीरिक अवरोधों पर नियंत्रण रखता है, तो वह अपने जीवन के संकटों से मुक्ति पा सकता है। आत्मा का बंधन और मोक्ष व्यक्ति के स्वयं के हाथों में है।
9. “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।”
(अध्याय 18, श्लोक 66)
अर्थ: सभी धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो। यह श्लोक आत्मसमर्पण और भगवान की कृपा का महत्व दर्शाता है। भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जब व्यक्ति पूरी तरह से ईश्वर के प्रति विश्वास और समर्पण के साथ शरणागत होता है, तब वह उसे संपूर्ण पापों से मुक्त कर देता है।
10. “न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।।”
(अध्याय 11, श्लोक 53)
अर्थ: मुझे न राज्य की कामना है, न स्वर्ग की, न पुनर्जन्म की। मेरी एकमात्र इच्छा है कि पीड़ित प्राणियों के कष्ट दूर हों। यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण के उद्देश्य और उनके दिव्य दृष्टिकोण को दर्शाता है। श्रीकृष्ण की इच्छा मानवता की भलाई के लिए होती है, न कि व्यक्तिगत लाभ या ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए। भगवान का उद्देश्य किसी भी प्रकार की इच्छाओं या भौतिक सुखों का संचय करना नहीं है, बल्कि उन्होंने जीवों के दुःखों का निवारण करने के लिए अवतार लिया है। यह श्लोक यह भी दिखाता है कि ईश्वर का कार्य निरपेक्ष होता है, और उनका समर्पण और प्रेम केवल मानवता के कल्याण के लिए है।