Are Reels Culture Impacting the Future of Youth : आज वीर बाल दिवस है। आज के दिन सीएम डॉ. मोहन यादव ने घोषणा की है कि गुरु गोविंद सिंह जी के साबिहजादों की वीरता के बारे में अब मध्य प्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाएगा। बता दें कि साल 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि हर वर्ष 26 दिसंबर को ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। इसका उद्देश्य साहिबजादों के आदर्शों को नई पीढ़ी तक पहुंचाना है। लेकिन आज बच्चों और युवाओं को लेकर एक बड़ा सवाल उठ रहा है..डिजिटल युग में कहीं ये पीढ़ी रील और रियल लाइफ के अंतर में भेद करना तो नहीं भूल गई है। कहीं ये भटकाव उन्हें बर्बादी के रास्ते पर तो नहीं ले जा रहा ?
ये बात है 26 दिसंबर 1705 की, मुगल शासक वज़ीर खान ने सिखों के अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी के साहबजादों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश किया। लेकिन उन्होंने इससे साफ इनकार कर दिया। इससे नाराज़ होकर वज़ीर खान ने दोनो साहबजादों को जीवित दीवार में चुनवा दिया। उस समय उनकी उम्र महज़ 7 और 9 साल की थी। इस कम उम्र में भी दोनों ने धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान करने का रास्ता चुना। ये घटना सिख इतिहास में धर्म और सत्य के लिए किए गए सबसे महान बलिदानों में से एक मानी जाती है।
क्या reels culture और viral videos के दौर में सुरक्षित है युवाओं का भविष्य
लौटते हैं वर्तमान पर। आज आपको अपने आसपास क्या नज़र आता है। ढेर सारी रील्स, वायरल वीडियो, मीम्स की बाढ़ और फ़िज़ूल की चुटकुलेबाजी। कॉमेडी के नाम पर अश्लील शब्दावली का उपयोग और वायरल होने की चाह में जाने क्या क्या कर रहे बच्चे..युवा। आज आप किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर चले जाइए..कुछ देर स्क्रॉल करते ही आपके सामने फूहड़ वीडियो-फोटो की लाइन लग जाएगी। स्डैंड अप कॉमेडी के नाम पर ऐसी ऐसी बातें..जो न तो बच्चों के साथ बैठकर सुनी जा सकती है, न अपने बड़ों के साथ। एडल्ट कंटेंट या डार्क ह्यूमर के नाम पर ऐसी चीज़ों की बाढ़ है जिसे सिर्फ अकेले बैठकर ईयरफोन लगाकर ही देखा जा सकता है। और ये कंटेंट कहीं न कहीं देखने वालों की मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करता ही है।
ये जजमेंटल होना नहीं, बस एक फिक्र वाली बात है
हालांकि..किसी भी बात का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। हमें उजला पक्ष भी देखना चाहिए। हाल ही हमने देखा कि भारत के शतरंज खिलाड़ी डी. गुकेश सबसे कम उम्र में शतरंज विश्व चैंपियन बने हैं। 13 साल के वैभव सूर्यवंशी ने लिस्ट ए क्रिकेट खेलने वाले बिहार के सबसे कम उम्र के भारतीय खिलाड़ी हैं। तिलक मेहता भारत के सबसे युवा उद्यमी हैं जिन्होंने 13 साल की उम्र में ही पेपर एन पार्सल नाम की कंपनी की शुरुआत कर दी थी। 15 वर्षीय भारतीय टेक प्रोडिजी अद्वैत ठाकुर ने महज छह साल की उम्र में कंप्यूटर का इस्तेमाल शुरू किया था। नौ साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली वेबसाइट लॉन्च की और अब वे कुछ वर्षों से Google के AI और क्लाउड प्लेटफॉर्म पर काम कर रहे हैं। कृतिमान मिश्रा भारत के सबसे कम उम्र के संगीतकारों में से एक हैं। ऐसे असंख्य नाम हैं जो अपनी प्रतिभा, कला, हुनर के माध्यम से देश दुनिया में बड़ा नाम कर रहे हैं।
टैलेंट और फूहड़ता के बीच अंतर ज़रूरी
और ऐसा भी नहीं है कि रील्स में सारी फूहड़, द्विअर्थी या बेसिरपैर की बातें हों। इनके ज़रिए भी कई उभरते हुए कलाकारों की पहचान हुई है। जिन लोगों के पास टैलेंट तो है लेकिन कोई मंच नहीं था..उनके लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म एक सुलभ ज़रिया बनकर उभरे हैं। लेकिन हम इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि आज बच्चों और युवा पीढ़ी में इतना भटकाव देखा जा रहा है कि भविष्य को लेकर चिंतित हो उठना अस्वाभाविक नहीं। एक बड़ी पौध इस ‘क्विक’ कामयाबी के पीछे भाग रही है और इस अंधी दौड़ का कोई अंत नज़र नहीं आ रहा। समस्या ये है कि ये मानसिक प्रदूषण किसी उम्र तक सीमित नहीं। क्या बच्चे..क्या बड़े, सब इस रील-कल्चर की गिरफ्त में हैं। सभी से तात्पर्य हर उम्र और तबके के लोग। बस एक क्लिक की दूरी पर है वो सब..जो जाने कब हमें दिग्भ्रमित कर सकता है।
अपने घर से ही करनी होगी बदलाव की शुरुआत
ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब युवाओं के भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हों..चिंताएं की जा रही हो। लेकिन इस बार समस्या ये है कि तकनीक हावी है और तकनीक के बिना अब बहुत कुछ संभव भी नहीं। ऐसे में बात आती है चुनाव की। किसी भी माध्यम को कैसे इस्तेमाल किया जाता है, इसपर काफी कुछ निर्भर करता है। और बात आती है तरबियत की भी। एक अच्छी पैरेंटिग और अच्छा माहौल बच्चों के जीवन की दिशा तय करता है। यूं, गारंटी किसी बात की नहीं। लेकिन असल बात ये है कि बच्चों को उपदेश देने सेCultural values in digital age बेहतर है कि बड़े भी वही काम करें, जो वो बच्चों से उम्मीद करते हैं। माता पिता हाथ में फोन लेकर बच्चों का स्क्रीन नहीं छुड़वा सकते। इसलिए ज्ञान की बजाय एक्शन से समझाया जाए। उनके आदर्श लकदक रोशनी में डूबे नकली मॉडल्स न हों। वे मेहनत का अर्थ समझें। बच्चों को पता चले कि असल दुनिया डिजिटल स्क्रीन से बाहर है। खेल के मैदानों में भीड़ बढ़े, बगीचे फिर से गुलज़ार हो, मोहल्ले में फिर बच्चों का हो हल्ला सुनाई दे, युवाओं में नज़र का लिहाज़ रहे…इन सबके लिए साझा कोशिशें ही काम कर सकती हैं। और ये शुरुआत हमें अपने घर से ही करनी होगी।