यह उन दिनों की बात है जब हम पुराने शहर में जामुन वाली मस्जिद के नजदीक रहते थे। मेरे वालिद सैयद अशफाक अली सैफिया कॉलेज में प्रिंसिपल थे। मेरी उम्र कोई दस बरस रही होगी। उस वक्त मैं चौथी क्लास में पढ़ता था, जब मैंने अपना पहला रोजा रखा था। घर में कुछ ऐसा माहौल था दिन में चूल्हा ही नहीं जलता था। यानि रमजान के दौरान दिन में खाना बनने का प्रचलन नहीं था, घर के सारे मेंबर रोजा रखते थे। मैंने भी पहला रोजा रखने की ख्वाहिश जताई। जो थोड़ी कोशिश के बाद मान ली गयी। पहले रोज़े का यह तजुर्बा है, पूर्व संयुक्त संचालक, जनसंपर्क सैय्यद ताहिर अली का।
अली उपमुख्यमंत्री मंत्री राजेंद्र शुक्ल का वर्ष 2004 से लेकर अब तक जनसंपर्क अधिकारी की हैसियत से प्रचार-प्रसार काम देख रहे हैं। वह बताते हैं कि मेरी रोजाकुशाई बड़ी धूमधाम से मनाई गई थी। मुझे किसी दूल्हे की तरह सजाया गया था। दिनभर मैंने खुद जा-जाकर लोगों को बताया था कि आज मेरा पहला रोजा है। शाम को अफ्तार के वक्त बड़ा जलसा हुआ। करीबी रिश्तेदारों के अलावा शहर के कई बड़े लोग इसमें शामिल हुए थे। अफ्तारी के बाद लजीज खाने की दावत भी हुई। सबने मुझे तोहफे दिए और दुआएं भी दीं। वह आगे कहते हैं कि जनसंपर्क की नौकरी के दौरान कई बार मुझे मीटिंग में बैठना पड़ता था। एक बार की बात है मैं छिंदवाड़ा में जिला जनसंपर्क अधिकारी था, तब वहाँ पूर्व सीएस डिसा साहब कलेक्टर थे।
पत्रकारों की त्रिमासिक बैठक चल रही थी। अचानक कलेक्टर साहब की नजर घड़ी पर पड़ी और उन्होंने बैठक वक्त से पहले यह कहते हुए खत्म कर दी कि ताहिर भाई का रोजा है, अफ़्तार का टाइम हो गया है। मंत्री शुक्ल साहब भी मेरे रोजे का बेहद ख्याल रखते थे। मुझे इफ्तार के लिए जल्दी छोड़ देते थे। मुझे कभी भी रोजा- रमजान में नौकरी के दरम्यिान कोई परेशानी नहीं आई। मेरे गैर मुस्लिम दोस्तों ने मुझे हमेशा रमजान के दिनों में पूरी तरह से सपोर्ट किया। नौकरी के दौरान मैं जहाँ रहा वहाँ रोजदार की बेहद कद्र होती थी। हमारे हिंदू भाई, मुस्लिम भाइयों से ज्यादा मेरे रोजे का ख्याल रखते थे।
सैय्यद ताहिर अली बताते हैं कि उनके परिवार में रोज़ा रखने की परम्परा चली आ रही है। जो आज भी जारी है। 60 साल के रोज़ा रखने में हमेशा गैर-मुस्लिम साथियों का सहयोग रहा। साथ ही उन्होंने मेरे रोज़े से होने का सम्मान भी बहुत किया। रोज़ा मेरी आदत में आ चुका है। मुझे कभी भी रोज़े के दौरान किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। मैं इस दौरान पूरे माह रोज़े की पावंदियों को ध्यान में रखते हुए उनका पालन करता हूं। रोज़े के दौरान मैं अपनी दिनचर्या आम दिनों की तरह ही रखता हूं। रमज़ान का महीना इबादत ,रहमतो, हज़ार नेमतों का हैl इस बात के मद्देनज़र रोज़ों का रखना बहुत अच्छा लगता है। आज 70 साल की आयु के बाद भी मेरे रोजे 60 साल से जारी है और मुझे यह उम्मीद है कि आखिरी दम तक यह सिलसिला जारी रहेगा।