Holi 2023 : ‘जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की’ नज़ीर अकबराबादी की नज़्म से थोड़ी और रंगीन कीजिए अपनी होली

Holi 2023 : हिंदुस्तान की असल खूबसूरती उसकी ‘अनेकता में एकता’ का भाव है। यहां इतनी विविध संस्कृतियां, धर्म, जाति, पर्व-त्योहार, परंपराएं, मान्यताएं हैं और इनका सौंदर्य ये है कि सभी इसे मिलजुलकर मनाते हैं। होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस जैसे प्रमुख त्योहारों के साथ लोक संस्कृतियों, कृषि और सामाजिक मान्यताओं से जुड़े विभिन्न पर्वों पर सभी एक दूसरे की खुशियों में शामिल होते हैं। इनमें भी होली तो खासतौर पर ऐसा मौका होता है जिसमें सभी एक दूसरे के रंग में रंगने और एक दूसरे को रंगने के लिए उत्साहित रहते हैं। ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। अकबर-जोधाबाई और जहांगीर-नूरजहां के साथ होली खेलने के जाने कितने किस्से मशहूर हैं। उस जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी कहा जाता था।

सूफ़ी कवियों और मुस्लिम साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में होली को बड़ी मोहब्बत से अहमियत दी है। खड़ी बोली के कवि अमीर ख़ुसरो ने हालात-ए-कन्हैया एवं किशना नाम से हिंदवी में एक दीवान लिखा था जिसमें होली के गीत भी हैं। इस मौके पर नज़ीर अकबराबादी के ज़िक़्र के बिना बात ही पूरी नहीं होगी। इन्हें उर्दू नज्मों का जनक और आम आदमी से जुड़े मसलों का शायर कहा जाता है। उनकी कलम ने होली को इतने रंगीन तरीके से बयां किया है कि आज भी हर बार उनकी नज़्मों का उदाहरण दिया जाता है। नज़ीर अकबराबादी की ग्रंथावली में होली से संबंधित 21 रचनाएं हैं और आज हम उन्हीं में से एक बेहद मशहूर नज़्म पढ़ेंगे।

देख बहारें होली की

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे।
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की।।

सामान जहां तक होता है इस इश्रत के मतलूबों का
वह सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो खू़बों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मजे़ के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का।
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारे होली की।।

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के।
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के ‘नज़ीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो।
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।

नज़ीर अकबराबादी


About Author
श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।

Other Latest News