जब शायरों ने कलाम में आई दिवाली, पढ़िए दिवाली पर लिखी गई कुछ बेहतरीन नज़्में

Nazm on Diwali

Nazm on Diwali : ‘जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की’ हम सबने नज़ीर अकबराबादी की होली पर लिखी ये मशहूर नज़्म जो कई बार पढ़ी होगी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि उन्होने दिवाली पर भी इसी तरह की एक खूबसूरत नज़्म लिखी है। उनके अलावा कई शायरों ने रोशनी के इस त्योहार पर बहुत कुछ कहा है। आज हम आपके लिए अदब की दुनिया से ऐसी ही कुछ जगमगाती नज़्में लेकर आए हैं..जो इस दिवाली को और रोशन कर देंगीं।

दीवाली

(नज़ीर अकबराबादी)

हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली का

हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का

सभी के दिल में समाँ भा गया दिवाली का

किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दिवाली का

अजब बहार का है दिन बना दिवाली का

जहाँ में यारो अजब तरह का है ये त्यौहार

किसी ने नक़्द लिया और कोई करे है उधार

खिलौने खेलों बताशों का गर्म है बाज़ार

हर इक दुकाँ में चराग़ों की हो रही है बहार

सभों को फ़िक्र है अब जा-ब-जा दिवाली का

मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई

पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई

बताशे ले कोई बर्फ़ी किसी ने तुलवाई

खिलौने वालों की उन से ज़ियादा बन आई

गोया उन्हों के वाँ राज आ गया दिवाली का

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चराग़ाँ

(कैफ़ी आज़मी)

एक दो  ही नहीं छब्बीस दिए

एक इक कर के जलाए मैं ने

 

एक दिया नाम का आज़ादी के

उस ने जलते हुए होंटों से कहा

चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो

हाथ फैलाने की आज़ादी है

 

इक दिया नाम का ख़ुश-हाली के

उस के जलते ही ये मालूम हुआ

कितनी बद-हाली है

पेट ख़ाली है मिरा जेब मिरी ख़ाली है

 

इक दिया नाम का यक-जेहती के

रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची

क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा

माँ के आँचल में हैं जितने पैवंद

सब को इक साथ उधड़ते देखा

दूर से बीवी ने झल्ला के कहा

तेल महँगा भी है मिलता भी नहीं

क्यूँ दिए इतने जला रक्खे हैं

अपने घर में न झरोका न मुंडेर

ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं

आया ग़ुस्से का इक ऐसा झोंका

बुझ गए सारे दिए

हाँ मगर एक दिया नाम है जिस का उम्मीद

झिलमिलाता ही चला जाता है

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दीपावली

(नज़ीर बनारसी)

मिरी साँसों को गीत और आत्मा को साज़ देती है

ये दीवाली है सब को जीने का अंदाज़ देती है

हृदय के द्वार पर रह रह के देता है कोई दस्तक

बराबर ज़िंदगी आवाज़ पर आवाज़ देती है

सिमटता है अंधेरा पाँव फैलाती है दीवाली

हँसाए जाती है रजनी हँसे जाती है दीवाली

क़तारें देखता हूँ चलते-फिरते माह-पारों की

घटाएँ आँचलों की और बरखा है सितारों की

वो काले काले गेसू सुर्ख़ होंट और फूल से आरिज़

नगर में हर तरफ़ परियाँ टहलती हैं बहारों की

निगाहों का मुक़द्दर आ के चमकाती है दीवाली

पहन कर दीप-माला नाज़ फ़रमाती है दीवाली

उजाले का ज़माना है उजाले की जवानी है

ये हँसती जगमगाती रात सब रातों की रानी है

वही दुनिया है लेकिन हुस्न देखो आज दुनिया का

है जब तक रात बाक़ी कह नहीं सकते कि फ़ानी है

वो जीवन आज की रात आ के बरसाती है दीवाली

पसीना मौत के माथे पे छलकाती है दीवाली

सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या

उजाला हर तरफ़ है इस किनारे उस किनारे क्या

गगन की जगमगाहट पड़ गई है आज मद्धम क्यूँ

मुंडेरों और छज्जों पर उतर आए हैं तारे क्या

हज़ारों साल गुज़रे फिर भी जब आती है दीवाली

महल हो चाहे कुटिया सब पे छा जाती है दीवाली

इसी दिन द्रौपदी ने कृष्ण को भाई बनाया था

वचन के देने वाले ने वचन अपना निभाया था

जनम दिन लक्ष्मी का है भला इस दिन का क्या कहना

यही वो दिन है जिस ने राम को राजा बनाया था

कई इतिहास को एक साथ दोहराती है दीवाली

मोहब्बत पर विजय के फूल बरसाती है दीवाली

गले में हार फूलों का चरण में दीप-मालाएँ

मुकुट सर पर है मुख पर ज़िंदगी की रूप-रेखाएँ

लिए हैं कर में मंगल-घट न क्यूँ घट घट पे छा जाएँ

अगर परतव पड़े मुर्दा-दिलों पर वो भी जी जाएँ

अजब अंदाज़ से रह रह के मस़्काती है दीवाली

मोहब्बत की लहर नस नस में दौड़ाती है दीवाली

तुम्हारा हूँ तुम अपनी बात मुझ से क्यूँ छुपाते हो

मुझे मालूम है जिस के लिए चक्कर लगाते हो

बनारस के हो तुम को चाहिए त्यौहार घर करना

बुतों को छोड़ कर तुम क्यूँ इलाहाबाद जाते हो

न जाओ ऐसे में बाहर ‘नज़ीर’ आती है दीवाली

ये काशी है यहीं तो रंग दिखलाती है दीवाली


About Author
श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।

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