Sahityiki : आज शनिवार है और अपनी पढ़ने की आदत को बेहतर करने के क्रम में हम पढ़ेंगे एक कहानी। जीवन की आपाधापी और समय की कमी के कारण हम पढ़ना भूलते जा रहे हैं। लेकिन अच्छा साहित्य हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने और संसार को समझने का विवेक प्रदान करता है। इसलिए पढ़ते रहना बेहद जरुरी है। हर सप्ताहांत हम अपनी इसी आदत को सुधारने का प्रयास करते हैं और ये कहानी उसी श्रृंखला का हिस्सा है। आज हम लेकर आए हैं कमलेश्वर की एक कहानी। कमलेश्वर को हिंदी साहित्य में बीसवीं शताब्दी के सबसे सशक्त लेखकों में गिना जाता है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा सहित कई विधाओं में बेहतरीन काम किया है। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में जन्मे कमलेश्वरको 1995 में को ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया और 2003 में उनकी उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। आज हम पढ़ेंगे उनकी एक कहानी
हवा है, हवा की आवाज नहीं है
कैरीन उदास थी। उसे पता था कि सुबह हमें चले जाना है। लेकिन उदास तो वह यों भी रहती थी। उस दिन भी उदास ही थी, जब पहली बार मिली थी। हम हाल गाँव का रास्ता भूलकर एण्टवर्प के एक अनजाने उपनगर में पहुँच गये थे। भाषा की दिक्कत भी थी। फ्रेंच से काम चल सकता था, पर वह फेलेमिश इलाका था। टेवर्न की अधेड़ औरत मदद तो करना चाहती थी, पर फ्रेंच नहीं बोलना चाहती थी। आखिर उसने बीयर का गिलास सामने रखा और फोन करने लगी।
जब तक उसने फोन किया और पता मालूम करके कैरीन लेने आयी, मैं उस छोटे से टेवर्न को देखता रहा। अधेड़ औरत को देखता रहा जो बार-बार मेरा गिलास बिना कहे भर देती थी। छोटे-से बिलियर्डरूम में उन स्पेनियों को देखता रहा जो खेलने से ज्यादा हँस रहे थे।
जब मैं रास्ता भूला था, शाम थी। उस वक्त प्लास्टिक की तरह चिकनी सड़कों के किनारे बिजली की बत्तियाँ गुलाबी से लाल और उसके बाद लाल से पीली हो गयी थीं। …कोहरा बहुत था। कैरीन के आने तक इधर-उधर देखने और सोचने के अलावा करने के लिए कुछ नहीं था। भाषा के कारण बात समझ नहीं आती थी, सिवा कुछ शब्दों के। मन कुछ उलझ भी रहा था। जब-जब यह अधेड़ औरत बीयर का गिलास भरती, शालीनतावश मैं–‘मेसीं बोकू’ कहकर उसे देखने लगता। वह मुस्करा देती, और काउण्टर की तरफ चली जाती।
कैरीन के इन्तजार में और कुछ किया नहीं जा सकता था। अपने देश को भी उसी बीच याद किया। फिर इन योरोपीय देशों की ओर ध्यान चला गया।
गुलदस्ते की तरह सजे यह शहर और देश…और ..तभी गोलकुण्डा की याद आयी। एण्टवर्प और गोलकुण्डा। एक है एक था। हीरों की मण्डी। गोलकुण्डा की हीरों की उस मण्डी में अब गरीब दर्जी और सब्जी वाले बैठते हैं…बेट्स का ठण्डा गिलास हुआ तो अच्छा लगा। कुछ देर गौर से दरवाजे की तरफ देखता रहा। आनेवाले ज्यादा नहीं थे, इसलिए कैरीन जब आयी तो पहचान लेने में कठिनाई से ज्यादा झिझक हावी हुई।
शायद इसलिए कि वह उदास लग रही थी। मन में आया कि इस वक्त मेरा रास्ता भूल जाना और उसका लेने आना-यह कुछ ठीक नहीं हुआ। शायद उसे बहुत अच्छा नहीं लगा है…लेकिन मेरी भी मजबूरी थी। बढ़ती रात में मैं और कहीं जा भी नहीं सकता था। एण्टवर्प में किसी को जानता भी नहीं था। इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि इस क्षण के चाहे-अनचाहे भारीपन को मंजूर करके मैं कैरीन के साथ सहजता से पेश आने की कोशिश करूँ…
लग रहा था कि वह मुस्कराएगी नहीं, पर वह मुस्करायी, भारीपन कुछ कम हुआ। सामने बैठते हुए उसने अधेड़ औरत को इशारा किया कि वेट्स उसे नहीं चाहिए और बोली, “क्यों, कभी घर का रास्ता भूला जा सकता है। कितना अच्छा होता अगर मैँ रास्ता भूल गयी होती, और कोई लेने आता…”
मैंने उसे गौर से देखा। उसके सुनहरे बालों की लट सामने झूल आयी थी और आँखें कुछ बड़ी-बड़ी हो गयी थीं, जैसे कभी-कभी गहरी उदासी में हो जाती हैं। बात जारी रखने के लिए मैंने कहा, “घर का रास्ता भूलना शायद आसान नहीं होता… ”
वह कुछ नहीं बोली। मुझे लगा कि इतनी खामोशी में अब हॉल गाँव तक का रास्ता कैसे कटेगा। और कैरीन के घर में ठहरना कहाँ तक ठीक होगा। लेकिन कोई विकल्प नहीं था। मन में अपमान-सा महसूस करते हुए यह रात तो मुझे गुजारनी ही थी। सर्दी भी बढ़ रही थी और कोहरा घना होता जा रहा था। मेरी गाड़ी में फॉग लाइट्स भी नहीं थी।
इससे पहले कि मैं चलने के लिए बेमन से, पर जरूरत के लिए कसमसाऊँ, कैरीन काउण्टर पर पैसे चुकाकर आयी और बोली, “चलें।”
“तुम्हारे देश के हाईवेज बहुत खूबसूरत हैं।” मैंने जड़ता तोड़ने के लिए फिर बात शुरू की।
“यह हिटलर की देन है। आन्तोबान…उसी के दिमाग की उपज है। यह फौजों के लिए बनाये गये थे ताकि फौजें बस्तियों के बाहर से गुजर जाएँ, उनकी सरगर्मी का पता न चले…दूसरे देशों की सीमाओं पर पहुँचने में कोई रुकावट न पड़े…अब वही सब देशों ने बना ली है…” कहते-कहते उसने अपनी कार का दरवाजा खोला, “तुम पीछे-पीछे आओ। हम तीसरी लेन में चलेंगे धीरे-धीरे, ठीक है। गाँव करीब पचास किलोमीटर है।”
कोहरे में लिपटा वह फासला तकलीफदेह और उबाऊ हो गया था। सफेद धुएँ की सुरंग में कैरीन की गाड़ी की पिछली रोशनियाँ देखते-देखते चलते जाने की एकरसता खलने लगी थी। हाईवे लगभग खाली था। रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। आखिर बायीं ओर मुड़कर एक काली पहाड़ी-सी दिखाई दी…पर वह जंगल था और उसमें घुसते ही रोशनी का एक धब्बा और सफेद दीवार दिखाई दी तो मैंने समझ लिया कि अब हम पहुँच गये हैं…
वह एक खूबसूरत कॉटेज था। ऊँचे-ऊँचे वन्य वृक्षों के बीच में। मैं बिस्तर उतारने लगा तो कैरीन ने कहा, “’तुम्हारा बिस्तर लगा हुआ है। सामान बँधा रहने दो, सुबह उतार लेना।” और अपने हार्थों पर दस्ताने पहनती हुई वह काटेज के पीछे की ओर चल दी। घास की नमी उस सूखी ठण्डक में कुछ ज्यादा ही अच्छी लगी। पैण्ट के पाँवचे भीगकर मोजों को भिगोने लगे थे।
बह आउट-हाउस लकड़ी का था। मुख्य कॉटेज के पीछे, घने पेड़ों के बीच। नाम जंगली पेड़ों में सर्दी जैसे हुई बैठी थी। एक क्षण बाद ही माँगी घास चुभने लगी थी। कैरीन ने आगे बढ़कर ‘कुटी’ का दरवाजा खोला। कुटी यानी– लकड़ी का एक कमरा जो चीड़ की महक से भरा हुआ था। एक कोने में पत्थरों से घिरा फायर-प्लेस था जिसमें लकड़ियाँ जलकर अंगारे बन चुकी थीं। कैरीन ने बिस्तर दिखाते हुए कहा, “ठीक है। यह लकड़ियाँ रखी हैं। पोदीने की चाय पिओगे।”
“अब बहुत रात हो गयी है, बनाने में… ”
“मैं चाय बनाकर गयी थी। फिर गरम कर लूँगी। मैंने सोचा आखिर तो हिन्दुस्तानी हो, चाय ही पसन्द करोगे।”
“अब सुबह पिऊँगा। मैं बहुत थका हुआ हूँ।”
“अच्छा गुडनाइट।” और कैरीन चली गयी।
मैं बैग में घुसकर लेट गया। दहकते अंगारों और लकड़ी की दीवारों की पतली सेंधों से गरम और तेज सर्द हवा की मुलायम बर्छियाँ चल रही थीं। चीड़ की महक भरी हुई थी। बैग की अपनी महक थी। कुछ देर बाद जब मन ने सब कुछ स्वीकार कर लिया–वह जंगली अँधेरा, सर्द और गर्म हवा की नुकीली रेशमी चीड़ और बैग की महक-तब अपने आप नींद आ गयी।
और फिर सुबह हुई। यानी आँख खुली। समय देखने से ही अन्दाज हुआ कि सुबह हो गयी होगी।
फायर-प्लेस में अंगारों की दूखियाँ राख सूखे चम्पा फूलों के ढेर की तरह जमा थी। बड़ा चिमटा पास रखा था। लकड़ियों का ढेर सुन्न था। दरवाजे के पास नायलन करतनों की बनी मछलियाँ चुपचाप डोरे के सहारे लटक रही थीं।
बेहद अजीब थी वह सुबह। आवाज-रहित सुबह। सब कुछ खामोश और सुन्न। खिड़की खोली तो उसकी आवाज से लगा कि कहीं कोई आवाज हो सकती है। लकड़ी के फर्श पर धप-धप किया कि कोई आवाज तो हो, कुछ तो कहीं से सुनाई पड़े। भोजपत्र और देवदार के लम्बे पेड़ों में भी आवाज नहीं थी। घास जैसे भीग-भीगकर दम तोड़ चुकी थी। सड़ी हुई घास पर भोजपत्र के पड़े हुए पत्ते हरी मुर्दा आँखों की तरफ ताक रहे थे। भयानक सन्नाटा…मैंने हथेलियाँ रगड़ीं, सर्दी के लिए नहीं, सरसराहट की आवाज के लिए कि देखें यहाँ इनमें आवाज होती है या नहीं, फिर लकड़ियों के चिमटे से खड़बड़ाया, आवाज हुई। जोर- जोर से लकड़ी के फर्श पर चला-फिर आवाज़ हुई…पर यह खेल भी बहुत भयानक होता जा रहा था। आवाज़ होती थी और मर जाती थी। उसकी कोई अनुगूँज नहीं बचती थी। यह कैसे पेड़ थे। कैसा जंगल था, कैसी घास थी। कैसी हवा थी।…जिसमें कोई स्वर नहीं था, जैसे बस सन्नाटा पैदा करता हो…मैंने खासकर देखा-खाँसी भी मर गयी। जितनी आवाज पैदा कर लो, बस उतनी ही…
सामने कॉटेज को घूरा। प्राणहीन कॉटेज खड़ा था…कैसा आतंक था यह। रात में ही कैरीन और उसके माँ-बाप की हत्या हो गयी हो और इस मुर्दा माहौल में मैं अकेला रह गया हूँ। आखिर मन घबराने लगा, मैंने गाना गाने की कोशिश की…तत्काल मरते जाते स्वर कितना भयावह हो गये हैं…कोई गाना ऐसे कैसे गाया जा सकता है। आखिर अपने से घबराकर मैं फिर बैग में घुस गया और आँख मूँदकर अपने ही साथ सोने का नाटक करने की कोशिश की। पर व्यर्थ… आखिर जब दिल बेतरह घबराने लगा और साँस घुटने लगी तो बैग से निकलकर मैंने फिर फर्श पर पैर पटके–वही धप-धप और उसके तत्काल बाद वही गहरी खामोशी…
एकाएक लगा कि अगर अभी, बिलकुल अभी जंगल, पेड़ों या घास से या आस-पास से आवाज न फूटी तो पागल हो जाऊँगा। हवा चाहे न हो पर आवाज तो हो…और उसी पागलपन की हालत में लगभग दरवाजा तोड़ता हुआ-सा मैं बाहर ठण्डी घास पर निकलकर एकदम जोर-से चीखा था, “’कैरीन।”
फिर भी कोई आवाज नहीं हुई–सिर्फ एक ध्वनिहीन दृश्य उभरा। कॉटेज का पिछला दरवाजा खुला…
हाथ में छोटी-सी ट्रे लिये कैरीन दिखाई दी। हलके-हलके मुस्कराते हुए उसके चलकर आने और मुस्कराने के दृश्य में कुछ हलचल हुई पर सन्नाटा फिर भी नहीं टूटा…
“गुड मार्निंग।’” और कैरीन की ट्रे के बर्तनों के धीरे-से खड़खड़ा जाने का एहसास हुआ। जैसे एक साँस आयी।
“तुमने कपड़े क्यों उतार रखे हैं।”
“कपड़े…” मैंने अपने को गौर से देखा। हाँ, सचमुच मैं नंगे बदन खड़ा था। उस भयानक सर्दी में! मुझे बिलकुल याद नहीं आया कि किसी घबराहट के क्षण में, घुटती साँसों में मुक्ति पाने के लिए मैंने कपड़े उतार दिये थे। रात तो पूरी बाँहों वाला पुलोवर तक पहनकर सोया था।
“गर्मी लग रही थी।” मैंने अपने को सँभाला।
“सर्दी खाकर बीमार पड़ सकते हो।” कैरीन ने धीरे-से कहा, ”अजीब है, कपड़े पहन लो। मैं चाय बनाती हूँ।”
मेरे कान खड़े हो गये थे। कैरीन की हलकी साँसों की सरसराहट। केतली के ढक्कन के धीरे-से हिलकर फिट हो जाने की आहट। फिर कैरीन के हाथ से चम्मच छूट जाने और चम्मच के प्याले से टकराने की मामूली-सी ध्वनि। फिर प्याले में चाय गिरने की आवाज का एहसास और फिर चीनी चलाने के लिए चम्मच का बार-बार प्याले की तह में घिसटने का आभास…
और तब मुझे सर्दी लगने और कपड़े पहनने की इच्छा का, जीवित होने का एहसास भी हुआ।
“क्यों, चाय अच्छी नहीं लगी?’” कैरीन ने पूछा।
“बहुत अच्छी।”
“कहो तो छुट्टी ले लूँ। तुम्हें ब्रुसेल्स घुमा दूँ और ग्राँ-काफे में अच्छी चाय भी पिला दूँ। तैयार हो जाओ तो चला जाए। क्यों? नौ बजे निकल चलें।” कहकर वह उठ गयी।
मुझे मालूम था कि कैरीन के माँ-बाप वहाँ सामने वाले कॉटेज में थे। पर आश्चर्य हो रहा था कि उनसे मिलवाने की बात वह नहीं कर रही थी। शीशे की खिड़कियों के पार आते या जाते भी उनकी छाया नहीं दिखाई दे रही थी। होना सब कुछ कैरीन की मर्जी से ही था। परिचय पुराना नहीं था। और अभी हम इतने खुले भी नहीं थे कि बेझिझ्क कुछ पूछ सकें।
ठीक नौ बजे वह उसी दरवाजे में दिखाई दी, जिससे सुबह वह चाय लेकर आयी थी। आते ही बोली, “चलें।”
“सवाँ।”’ मैंने कहा, तो वह मुस्करायी।
और हम गाँव से निकलकर मुख्य सड़क पर आ गये। बूम के पास से गुजरे तो मिट्टी की जलागंध आ रही थी। मैंने पूछा, “यह मिट्टी जलने की महक कैसी है ?”
“आखिर तुम बोले तो।”’ कैरीन ने गाड़ी स्लो-लेन में लाते हुए कहा, “ये ईंटों की फैक्टरियाँ हैं। तुम सिगरेट पीना बन्द नहीं कर सकते।”
उसने कहा तो एकाएक मैं बहुत अपमानित और तुच्छ महसूस करने लगा। शायद एयरकण्डीशण्ड कार में घुमड़ती हुई सिगरेट की महक उसे अच्छी नहीं लग रही थी। मैंने काँच उतारकर महक का माहौल साफ कर देना चाहा, तो वह फिर मुस्करायी, “तुम मेरी बात समझे नहीं।”
“क्या!”
“सिगरेट वाली। मैं चाहती हूँ तुम कुछ बात करो। सिगरेट तुम्हें बात नहीं करने देती। एकान्तिक बना देती है। यह खामोशी तुम्हें नहीं खलती ? कोई बात करते हो तो कितना अच्छा हो।”
उसके यह कहते ही सुबह वाला भारीपन एकाएक लौट आया और मुझे लगा कि शायद कैरीन भी उतनी ही मस्त है। मैंने कहा, “तो तुम बताती चलो।”
“दाहिनी ओर एण्टवर्प छोड़कर अब हम ब्रुसेल्स की ओर बढ़ आये हैं।”
“और ।”
“मेरे देश की आबादी एक करोड़ है। कि हम बहुत सम्पन्न हैं।”
“क्यों, कैसे ?”
“क्योंकि हमने कटांगा और बेल्जियन कांगों की खानों से सोना और ताँबा निकाल-निकालकर अपने देश में भर लिया है।”
“और ।”
“यह बी.पी. है–ब्रिटिश पेट्रोल, पर हम इसे बूअस्पिस कहते हैं। गँवार का पेशाब।”
“और ।”
“हम बेल्जियंस पिसोनोमी के विशेषज्ञ हैं।”
“और ।”
“ब्रुसेल्स आ गया है। अब हम तुम्हें चाय पिलाएँगे।”
“यहाँ इतने कम लोग क्यों हैं। कोई दिखाई ही नहीं देता। मैं चाहूँ तो तुम्हारी राजधानी की सड़कों पर आते-जाते लोगों की गिनती कर सकता हूँ।”
“गिनती करने में लग जाओगे तो फिर बातें बन्द ही जाएँगी।” कहती हुई वह मेरा हाथ पकड़कर ग्राल्पस में आ गयी। कार हमने बाहर छोड़ दी थी। ग्राल्पस पथरीली इंटों का छोटा-सा चौक था। खाली-खाली और सूना। उसने गर्व से इशारा किया–ग्राँ-काफे दल ग्राँ-प्लास।
एक बहुत पुराना काफे । उजड़ा-उजड़ा-सा पूरा और थका हुआ-सा। बीचोंबीच खड़ा हुआ एक मुर्दा घोड़ा। स्टफ्ड इधर-उधर दीवारों और कार्निसों पर लटकते काठ के योद्धा। छतों से लटकते ताँत की कुप्पियों के गुच्छे। हम काठ की सीढ़ी से चढ़कर ऊपर पहुँच गये। छोटी-छोटी खिड़कियों के पास लगी हुई उदास मेजें। कैरीन ने चाय का ऑर्डर दे दिया था। शराब के प्यालों में गरम पानी आ गया और पानी में ताबीज़ की तरह लटकी चाय की पोटली धीरे-धीरे रंग छोड़ने लगी।
“तुम्हारा देश कितना खूबसूरत है?”
“बहुत ।”
“बहुत क्या होता है। कुछ बताओ…” कैरीन ने हठ किया।
“तुम्हारे बालों की तरह खूबसूरत। पर बेहाल।”
वह थोड़ी-सी शरमायी फिर उँगली पर एक लट लेते हुए बोली, “यह सचमुच खूबसूरत है। और छोड़ो। यह बताओ अँगरेजों ने तुम्हें बहुत लूटा है?”
“बहुत ज्यादा।”
“लोग बहुत गरीब हैं?”
“ज्यादातर ।”
सुनकर वह चुप हो गयी थी। फिर बात बदलते हुए बोली, ‘“कल सुबह तुम हॉलैण्ड चले जाओगे?!
“हाँ ।”
“तो चलो, तुम्हें कुछ और घुमा दें।’!
“घूमते-घामते घर निकल चलेंगे।”
“घर!”
“तुम घर से इतना घबराती क्यों हो।”
“घबराती कहाँ हूँ। सिर्फ इतना है कि घर-घर नहीं लगता।”
“क्यों? माँ-बाप से कुछ… ”
“नहीं, वे बहुत अच्छे हैं। उन्हें खुद घर घर की तरह नहीं लगता। हम प्रकृति के पास और साथ होना चाहते थे। इसीलिए हॉल में घर बनवाया था कि फूल होंगे, चिड़ियाँ होंगी। तितलियाँ होंगी। गिलहरियाँ होंगी…पर जर्मनी…”
“जर्मनी। जर्मनी से इसका क्या लेना-देना। देश। देश तुम्हारा है, प्रकृति तुम्हारी… घर तुम्हारा है।”
“हाँ है, पर…” और यहाँ पर उसने बात तोड़ दी थी।
हम घूमते-घामते घर लौट आये थे। रात का खाना खा चुकने के बाद हम पोदीने की चाय पी रहे थे। सर्दी और कोहरा बहुत था। उसने फायर प्लेस में लकड़ियाँ जला दी थीं। वह बार-बार अपने बालों की लट अँगुली पर लपेट रही थी। मैं रह-रहकर सामने काटेज की ओर देख लेता था। जहाँ सिर्फ एक खिड़की रोशन थी। वह बार- बार मेरी बिछलती नज़र को देख लेती थी। आखिर मैंने खामोशी तोड़ी, “’मैं तुमसे बहुत नाराज़ हूँ।”
“क्यों ?”’ वह पास खिसक आयी।
“तुमने अपने माँ-बाप से भी नहीं मिलवाया।”
“माँ तो खैर बीमार हैं। वे उठ नहीं सकतीं। पिता आज शाम तुमसे मिलने खुद कुटी में आनेवाले थे, पर उन्होंने आज ही पैर में चोट लगा ली है। महज पागलपन में।”
“पागलपन में।’”
“और क्या!”
“तुम्हारी बातें मैं पूरी तरह समझ नहीं पाता।”
“मुश्किल तो कुछ भी नहीं है। अगर समझना चाहो तो। लेकिन शायद तुम मेरी त्रासदी समझ नहीं पाओगे।”
“तुम बहुत अकेली हो?”
“दूसरे अर्थों में।”
“पुरुष के अभाव में।” मैंने झिझक तोड़ते हुए कहा।
वह धीरे-से हँसी, फिर बोली, ”बस, यहीं तक दिमाग दौड़ता है। तुम पुरुष नहीं हो क्या। इस वक्त तुम मेरे बिलकुल करीब हो। पुरुष का अभाव कहाँ है। वह तो कहीं भी मिल जाता है। मिल सकता है। पर मात्र घर और पुरुष ही तो सब कुछ नहीं है। क्या घर इतने से बन जाता है।” उसके चेहरे पर उदासी का बादल आ गया था, और वह एकटक मुझे ताक रही थी। मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। सन्ध्रों से सर्दी और फायर-प्लेस से गर्मी की रोशनी लपटें फिर आक्रमण कर रही थीं। उसने चुपचाप दोनों प्याले उठाकर ट्रे में रख लिये थे और हाथ फैलाये अपनी हथेलियों को ताकने लगी थी।
“दोपहर में तुम कुछ बात फूलों, तितलियों की कर रही थीं।”
“हाँ, जर्मनी की भी।”
“यह जर्मनी बार-बार क्यों घुस आता है।”
“हमारा गाँव सीमा के काफी पास है। जर्मनी का विशाल औद्योगिक केद्र डुसूलडोर्फ जब से स्थापित हुआ है, हमारे देश की हालत खराब हो गयी है। न यहाँ चिड़ियाँ आती हैं…जहरीला धुआँ सब कुछ चाट गया…इस वीरानेपन की कल्पना कर सकते हो। हम इसीलिए शहर छोड़कर यहाँ आये थे कि बेरिख होंगे…”
“बेरिख।”
“ये सफेद हाल वाले खूबसूरत पेड़।” उसने भोज पत्र के पेड़ की ओर इशारा किया था, जिसका तना खिड़की से झाँक रहा था–पर सब बेकार हो गया। जब से डुसूलडोर्फ का जहरीला धुओँ देश में भरना शुरू हुआ है, हमारे पेड़ मुरझा गये हैं। नयी पत्तियाँ तक खुशी से नहीं निकलतीं। फूल खिलने बन्द हो गये। चिड़ियाँ न जाने कहाँ चली गयीं। गिलहरियों ने आना बन्द कर दिया। पिता ने पैर में चोट लगा ली, पता है कैसे। हम लोग तो ब्रुसेल्स में थे। दोपहर में वे निकले तो बहुत दिनों बाद बैरिख पर एक गिलहरी फुदकती दिखाई दे गयी…बच्चों की तरह पागल हो उठे। गिलहरी देखने के लिए नंगे पाँव दौड़ पड़े। सूखी झाड़ी के टूटे हुए ठूँठ ने उनका पैर फाड़ दिया…गिलहरी तो खैर भाग गयी पर वे पट्टी बाँधे बिस्तर पर पड़े हैं…सुबह तुम्हें मिलवा दूँगी। चिड़ियाँ तो अब आती ही नहीं। कितना सन्नाटा लगता है यहाँ। घर घर नहीं लगता है। लौटकर आने को जी नहीं करता, तुम ऐसे जहरीले सन्नाटे में रह सकते हो?”
मैं चुपचाप उसकी ओर देखता रहा। रात काफी हो चुकी थी। उसने हलके से अँगड़ाई ली और अँगुलियाँ चटकाते हुए बोली, “अपने देश पहुँचकर खत लिखा करोगे?”
“क्यों तुम्हें शक है कि… ”
“नहीं, पर क्या पता, शायद हम एक-दूसरे को तो याद रख पाते हैं पर यह भूल जाते हैं कि कौन क्या चाहता हुआ मिला था। अच्छा…गुडनाइट।”
और वह ट्रे लेकर चल दी। मैं कुटी में दरवाजे पर खड़ा होकर उसे घास भरी पगडण्डी से जाते हुए देखता रहा। वह कॉटेज तक पहुँची, दरवाजा खुला। फिर बन्द हुआ। फिर रोशनी जली। फिर रोशनी बन्द हुई। फिर कुछ देर का व्यवधान हुआ। उसके बाद ऊपर वाली रोशन खिड़की का पल्ला खुला। उसमें से कैरीन का एक हाथ निकला-फिर गुनगुनाहट करने के लिए फिर पल्ला बन्द हुआ। रोशनी बुझी और भयानक खामोशी छा गयी।
सुबह सामान लादकर चलने से पहले मैं कैरीन के माँ-बाप से मिलने गया। माँ तकिये के सहारे आधी लेटी थी। पिता पैर में पट्टी बाँधे बच्चों की तरह शरमाते हुए मुस्करा रहे थे। कैरीन कुछ छोटे-छोटे पैकेट लिये खड़ी थी। विदा लेकर मैं चला तो वह नीचे आयी। बोली, “पेट्रोल पम्प तक तुम्हें छोड़ आती हूँ। सफर लम्बा है, कार की चैकिंग भी करवा दूँगी। गैस भी ले लेना। और हाँ ये पैकेट रख लेना।”
“इसमें क्या है?”
“कुछ है। ऐसे ही। दूसरे देश पहुँच जाओ तब देख लेना।” और उसने वे छोटे-छोटे पैकेट वहीं सीट पर रख लिये। खुद भी साथ बैठ गयी। पेट्रोल पम्प तक साथ चलने के लिए।
“तुम्हें पैदल लौटना होगा।” मैंने कहा।
“पास ही है।” वह बोली।
पेट्रोल पम्प से आगे सफर चलते हुए मैंने कैरीन से विदा ली और शब्दों के अभाव में सिर्फ इतना ही कह पाया, “मैं तुम्हें खत लिखूँगा।”
“बेहतर है मत लिखना। खतों से खामोशी और बढ़ती है।”
“हो सके तो कभी फिर आना। बहुत-सी बातें करेंगे। अच्छा…” कैरीन फिर उदास हो गयी थी। सड़क पर मुड़ते हुए मैंने उसे एक बार फिर देखा। वह हाथ हिला रही थी।
आखिर वह वहीं छूट गयी। और हालैण्ड की सीमा पर आये पास कण्ट्रोल पर जब मैं अपने कागजों पर मुहरें लग जाने की प्रतीक्षा कर रहा था तो मैंने कैरीन के दिये पैकेट खोल-खोलकर देखे। एक में मनेकेन-पीस की छोटी-सी मूर्ति थी। उसी मूतते हुए बच्चे की जो ग्रांलपास के वाली गली में सर्दियों से खड़ा मृत रहा है। दूसरे में मशहूर सूती लेस लगे कपड़े पहने एक गुड़िया थी। तीसरे में उसके सुनहरे बालों की एक लट और चौथे में कलफ लगे कपड़े की बनी एक तितली।