Sahityiki : साहित्यिकी में आज पढ़िए मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘आत्म संगीत’

Sahityiki :  धीरे-धीरे हमारी पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। भागमभाग वाले जीवन में फुर्सत का समय कम मिलता है और ऐसे में साहित्य की और लोगों का रूझान घट रहा है। लेकिन हम कोशिश करते हैं कि पढ़ने की आदत को बनाए रखें..क्योंकि किताबें हमें भीतर से प्रकाशित करती हैं। आज शनिवार है और अपने पढ़ने की आदत को बेहतर करने के क्रम में आज हम पढ़ेंगे एक कहानी। हम फिर आपके लिए लेकर आए हैं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी। प्रेमचंद का लेखन आदर्श और यथार्थवादी है। इनमें ग्राम्य जीवन की वास्तविकता की झलकियां है और ये मानवीय संबंधों को भी बहुत अच्छे से दर्शाती हैं। तो आज हम पढ़ते हैं उनकी कहानी ‘आत्म संगीत’।

आत्म संगीत

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आधी रात थी। नदी का किनारा था। आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनका प्रतिबिम्ब लहरों के साथ चंचल। एक स्वर्गीय संगीत की मनोहर और जीवनदायिनी, प्राण-पोषिणी घ्वनियॉँ इस निस्तब्ध और तमोमय दृश्य पर इस प्रकाश छा रही थी, जैसे हृदय पर आशाऍं छायी रहती हैं, या मुखमंडल पर शोक।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी। दिन-भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अकस्मात् उसकी ऑंखें खुलीं और ये मनोहर ध्वनियॉँ कानों में पहुँची। वह व्याकुल हो गयी—जैसे दीपक को देखकर पतंग; वह अधीर हो उठी, जैसे खॉँड़ की गंध पाकर चींटी। वह उठी और द्वारपालों एवं चौकीदारों की दृष्टियॉँ बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी—जैसे वेदनापूर्ण क्रन्दन सुनकर ऑंखों से ऑंसू निकल जाते हैं।
सरिता-तट पर कँटीली झाड़िया थीं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जंतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें! शव थे और उनसे भी अधिक भयंकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमलता और सुकुमारता की मूर्ति थी। परंतु उस मधुर संगीत का आकर्षण उसे तन्मयता की अवस्था में खींचे लिया जाता था। उसे आपदाओं का ध्यान न था।
वह घंटों चलती रही, यहॉँ तक कि मार्ग में नदी ने उसका गतिरोध किया।


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श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।