मध्यप्रदेश चुनाव: 38 लाख मुस्लिम आबादी लेकिन सिर्फ 4 उम्मीदवारों को मिले टिकट

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भोपाल। मध्यप्रदेश में मुस्लिम समुदाय की आबादी लगभग 38 लाख है। लेकिन बीते दो दशक से इनका प्रतिनिधित्व विधानसभा में घटा है। चुनाव आयोग के आंकड़े तो यही दर्शाते हैं। राजनीतिक दल 1980 तक मुस्लिम समुदाय के उम्मीदवारों को चुनावी रण में उतारने के लिए उपेक्षा नहीं करते थे। प्रदेश के पांच करेड़ मतदाताओं में से इनकी संख्या 38 लाख के करीब है। लेकिन बीते 15 सालों से सिर्फ एक ही मुस्लिम उम्मीदवार विधानसभा में मौजूद है। 

इस बार कांग्रेस ने तीन मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है। इनमें भोपाल उत्तर विधानसभा से आरिफ अकील, मध्य विधानसभा से आरिफ मसूद और सिरोंज से मसर्रत शहीद शामिल हैं। जबकि बीजेपी ने सिर्फ एक ही उम्मीदवार को टिकट दिया है। भोपाल की उत्तर विधानसभा से कांग्रेस के कद्दावर नेता अरिफ अकील के खिलाफ फातमा सिद्दीकी को उतारा है। इस सीट पर मुस्लिस वोट बैंक हैं। बीते कई सालों से बीजेपी जीत की तलाश में है। लेकिन उसे हर बार निराशा ही हाथ लग रही है। 

25 सीटों पर है मुस्लिम समुदाय का प्रभाव

भोपाल की उत्तर और मध्य विधानसभा के अलावा प्रेदश की 25 सीटों पर मुस्लिम वोट बैंक बड़ी भूमिका निभाता है। इनमें भोपाल की नरेला विधानसभा, बुरहानपुर, शाजापुर, देवास, रतलाम सिटी, उज्जैन उत्तर, जबलपुर पूर्व, मंदसौर, रीवा, सतना, सागर, ग्वालियर दक्षिण, खंडवा, खरगोन, इंदौर-एक, दोपालपुर में मुस्लिम वोटरों का प्रभाव है। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने इनके प्रतिनिधित्व के लिए उम्मीदवार को मैदान में उतारने के लिए नहीं सोचा।

मुस्लिम उम्मीदवारों के घटते प्रतिनिधित्व पर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीति के जानकार लज्जा शंकर हरदेनिया का कहना है कि प्रदेश में मुस्लिमों की कुल जनसंख्या में से 6.57 फीसदी है। यह आंकड़ा 2011 के जनसंख्या के मुताबिक है। इस हिसाब से विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए कम से कम 15 से 20 उम्मीदवार होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें संसद और विधानसभा मे मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना चाहिए। राजनीतिक दलों को मुस्लिमों को राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और उनको टिकट भी देना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि लेकिन बदकिस्मती से ऐसा नहीं हो रहा है। प्रदेश कांग्रेस में हम मुस्लिम नेताओं का हाल देखते हैं। प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ द्वारा किसी भी मुस्लिम को प्रदेश कांग्रेस के किसी भी संगठन में बड़े पद पर मुस्लिम को नहीं रखा गया है। 

क्या वजह है मुस्लिम लीडरशिप कम होने की

प्रदेश में घटते मुस्लिम प्रतिनिध्त्व के दो बड़े कारण हैं. इनमें पहला है बाबारी मस्जिद कांड के बाद से प्रदेश में वोटों का ध्रुविकरण, दूसरा है परिसीमन के बाद मुस्लिम आबादी का अगल अगल विधानसभाओं में बंट जाना।  परिसीमन बढ़ती जमसंख्या को देखते हुए किया जाता है। जब जिस विधानसभा क्षेत्र में आबादी बढ़ती है तो उसके हिसाब से परिसीमन कर नई विधानसभा का गठन किया जाता है। प्रदेश में 2001 और 2002 की जनसंख्या के मुताबिक परिसीमन किया गया है। 

93 में कोई भी मुस्लिम विधायक नहीं था मौजूद

बाबरी मस्जिद कांड के बाद जब एमपी में दिग्विजय सिंह की सरकार बनी। ऐसा पहली बार हुआ था कि एक भी मुस्लिम उम्मीदवार विधानसभा में नहीं था। फिर 1998 में दोबारा दिग्विजय सिंह की सरकार बनी। इस बार तीन मुस्लिम उम्मीदवार विधानसभा की चौखट तक पहुंचे थे। इनमें आरिफ अकील भी थे। वह निर्दलीय लड़े थे फिर बाद में उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन कर ली थी। 

इस बारे में जब कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता साजिद कुरैशी से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल मुस्लिम नेताओं को संभावित उम्मीदवारों के रूप में नहीं देखते हैं। बाबरी मस्जिद कांड के बाद दोनों कौमों में बड़ी खाई बन गई है। दोनों समुदाय के लोग अपने नेताओं को धर्म के आधार पर पसंद करने लगे न कि उनके राजनीतिक कामकाज के आधार पर। इसकी नतीजा यह हुआ कि मुस्लिम लीडरशिप पूरे देश में ढलान पर आ गई।

बीजेपी प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल का इस सवाल पर कहना है कि बीजेपी धर्म के आधार पर टिकट बंटवारा नहीं करती है। पार्टी देखती है उम्मीदवार जिताऊ है कि नहीं। समाज में उसका कामकाज कैसा है। जनता के बीच उसकी पैठ कितनी है। क्या वह जनता से किए वादों पर खरा उतरेगा या नहीं। 

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