माल गाड़ियों का नेपथ्य
रेलवे स्टेशन की समय सारणी में
कहीं लिखा नहीं होता उनका नाम
प्लेटफार्म पर लगे स्पीकरों को
उनकी सूचना देना कतई पसंद नहीं
स्टेशन के बाहर खड़े साइकिल रिक्शा, ऑटो, तांगे वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता उनके आने – जाने से
चाय- नमकीन की पहिएदार गुमठियां
कोने में कहीं उदास बैठी रहती हैं
वजन बताने की मशीनों के लट्टू भी
कहां उनके लिए धड़का करते हैं
आधी नींद और आधे उपन्यास में डूबा बुक स्टॉल वाला
अचानक चौंक नहीं पड़ता किताबों पर जमी धूल हटाने के लिए
कौन उनके लिए प्लेटफार्म टिकट निकालता है –
हाथों में फूल – माला लिए आता है?
माल गाड़ियों के आने – जाने के वक्त
पूरा स्टेशन और पूरा शहर तकरीबन
पूरी तरह याददाश्त खोए आदमी-सा हो जाता है
इतनी बड़ी उपेक्षा का ज़ख्म पसीने से छुपाए
भारी भरकम माल असबाब के साथ
वे ढोती हैं दुनिया की ज़रूरतें
और ला-लाकर भरती हैं हमारा खालीपन
एक्सप्रेस ट्रेनों की ख़ातिर
हमेशा ही रोका गया उनका रास्ता
हरा सिग्नल उनको हक की तरह नहीं,
दया की तरह मिला
जब-जब मालगाड़ी को देखो
वह मज़दूरों के काफ़िले-सी लगती है
रोज़ दुनिया बनाने की जद्दोजहद में
दुनिया में अपनी हिस्सेदारी से बेख़बर।
कवि: हेमंत देवलेकर