भोपाल।
विधानसभा चुनाव में हार के बाद बीजेपी ने लोकसभा चुनाव की तैयारियों तेजी से शुरु कर दी है। बीजेपी इस बार कई सीटों पर नए उम्मीदवार उतारने और वर्तमान सांसदों को की सीटे बदलने के मूड में है। इसमें सबसे आगे नाम केन्द्रीय मंत्री और ग्वालियर से सासंद नरेन्द्र सिंह तोमर का चल रहा है।खबर है कि एट्रोसिटी एक्ट के कारण पार्टी उन्हें ग्वालियर से ना उतारकर किसी अन्य सीट से चुनाव लड़वा सकती है।ऐसे में तोमर की भोपाल या विदिशा से चुनाव लड़ने की अटकले तेज हो गई है।
खबर है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के चुनाव लडने से इनकार के बाद पार्टी उन्हें सबसे सुरक्षित भोपाल या फिर विदिशा से मैदान में उतार सकती है वही ग्वालियर से किसी और को मौका दिया जा सकता है।पिछले आंकड़ों की बात की जाए तो तोमर ने 2013 में ग्वालियर लोकसभा सीट के आठ विधानसभा क्षेत्रों में से भाजपा ने पांच पर जीत दर्ज की थी। तोमर 2009 में मुरैना फिर 2014 में ग्वालियर से जीते थे।लेकिन इस बार समीकरण कुछ बदले बदले से है। विधानसभा चुनाव में एट्रोसिटी एक्ट के विरोध के बाद बीजेपी तोमर को लेकर कोई रिस्क नही लेना चाहती।चुंकी विधानसभा चुनाव मे इसी एक्ट के प्रभाव के चलते कई मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा था।
चुनौती बना 2019 का चुनाव
ऐसे में भाजपा और तोमर के लिए यह लोकसभा चुनाव एक चुनौती बन गया है। नए समीकरणों से 2019 में वे कड़ी चुनौती से घिर गए हैं। लोकसभा चुनाव 2014 में तोमर की जीत में सबसे बड़ी भूमिका ग्वालियर के शहरी क्षेत्र की रही। आठ में से चार विधानसभा क्षेत्रों में पिछडऩे के बाद भी तीन शहरी विधानसभा ग्वालियर शहर, पूर्व और दक्षिण से बंपर बढ़त ने राह आसान कर दी थी, लेकिन हाल के विधानसभा चुनाव में पार्टी यहां बड़े अंतर से हारी है। पार्टी और केंद्रीय मंत्री तोमर के लिए शहरी इलाका हाथ से जाने से चिंता का विषय बन गई है। अब पार्टी इस नाराजगी और सवर्णों के विरोध के चलते नरेन्द्र सिंह तोमर की सीट बदलने के विचार कर रही है। पार्टी को भय है कि कही सर्वणों की नाराजगी लोकसभा चुनाव में ना भारी पड़ जाए।
विधानसभा चुनाव हारे फिर भी कद बड़ा
विधानसभा चुनाव की हार और बीते चुनाव में ग्वालियर सीट से जीतने के बाद नरेंद्र सिंह तोमर का सत्ता और संगठन में कद बढ़ा है। पहले उन्हें केंद्र में खान मंत्रालय मिला, फिर पंचायत एवं ग्रामीण विकास जैसे बड़े महकमे के मंत्री बने। अनंत कुमार के निधन के बाद संसदीय कार्य मंत्रालय भी उन्हीं के पास है। विधानसभा चुनाव में उन्हें प्रदेश चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। इतना कद बढऩे के बाद भी उनका संसदीय क्षेत्र ग्वालियर में कोई बदलाव नही देखने मिला, उल्टा कांग्रेस अपने पैर जमाने मे यहां कामयाब हो गई। कांग्रेस के कद्दावर नेता स्व माधवराव सिंधिया जैसा प्रभाव छोडऩे में भी वे नाकाम रहे। केंद्र में उनकी ताकतवर मौजूदगी के बाद भी ग्वालियर-चंबल को कोई बड़ी उपलब्धि नहीं मिल पाई। अगर 2018 के विधानसभा चुनाव से 2014 के लोकसभा चुनाव का विश्लेषण करें तो भाजपा 1.15 लाख से अधिक वोटों से पिछड़ चुकी है।ऐसे में पार्टी अब उनको लेकर कोई रिस्क नही लेना चाहती।