सेवढ़ा,राहुल ठाकुर। ऊपर खुला आसमान नीचे दूर-दूर तक फैली विंध्य पर्वत श्रृंखलाएँ। इन हरी भरी पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य मुकुट की तरह नज़र आता है रतनगढ़ माता का मंदिर (ratangarh mata temple)। पूरब दिशा में प्रवाहित सिंध नदी आगे मुड़ने पर ऐसे नज़र आती है जैसे मुड़ मुड़ कर माता के दर्शन को आतुर हो। प्रकृति का ऐसा सुहाना दृष्य कभी कभी ही देखने को मिलता है। आंखे देखते देखते थकती नही। हरियाली साथ साथ सात्विकता ओढ़े इन मनोरम दृष्यों को हर कोई मन मे आँखों मे भर लेना चाहता है।
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विंध्य पर्वत श्रृंखला की उत्तरी छोर पर रतनगढ़ स्थित है। यहाँ पहाड़ की चोटी के एक ओर देवी माता का मंदिर तथा दूसरे छोर पर कुंवर महाराज का मंदिर है। यहाँ दीपावली की भाई दूज के दिन लख्खी मेला लगता है। इस मेले का भाई दोज के दिन आयोजन के संदर्भ ऐतिहासिक है। तेरहवी शताब्दी में आरम्भ में जब अलाउद्दीन खिलजी ने इटावा होकर बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया उस समय रतनगढ़ में राजा रतनसेंन परमार थे। उनके एक पुत्री मांडुला तथा अवयस्क पुत्र कुंवर थे। राजकुमारी मांडुला अनिध्य सुंदरी थी। उसे पाने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने रतनगढ़ पर हमला किया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ।
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रतन सेन बहादुरी से लड़े पर परास्त होकर मारे गए।हिन्दू महिलाओं ने सामूहिक रुप से जौहर व्रत में आत्मोसर्ग किया। जहाँ रतनसेन का अनेंक योद्धाओं के साथ दाह संस्कार हुआ उसे आज चिताई कहते है। राजकुमारी मांडुला तथा राजकुमार कुंअर ने भी घास की ढेरी में आग प्रज्वलित कर प्राण त्याग दिये। कालान्तर में राज कन्या और राज कुंअर देव सदृश पूजे जाने लगे। समर्थ गुरु रामदास द्वारा यहाँ मढ़िया में मूर्ति स्थापित करने के बाद यह स्थान रतनगढ़ की माता के नाम से प्रशिद्ध हुआ। इन बहिन भाई की स्मृति में भाई दूज के दिन यहाँ लख्खी मेला लगता है। इस मेले में 24 घण्टे में 25 लाख तक श्रद्धालु आते है। यह मप्र के सबसे बड़े मेलों में से एक है।
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यहाँ विषैले जीव जन्तु द्वारा सताये गये व्यक्ति और जानवरों के बंध भी काटे जाते है। ये लोग अचेत अवस्था में स्ट्रेक्चर पर लाये जाते है और कुँअर बाबा के दर्शन कर खुशी खुशी अपने पैरों से जाते देखे जाते है। आस्था और विश्वास के इस महाकुंभ में कोई खाली हाथ नहीं जाता।