दतिया,सतेंद्र रावत। मध्य प्रदेश के दतिया (datia) जिले से 65 किमी रतनगढ़ माता मंदिर रामपुरा गांव में स्थित है। यह पवित्र स्थान घने जंगल और “सिंध” नदी के तट पर है, यहाँ हर साल दीपावली के अगले दो दिन मेला लगता है उसमें हजारों क़ी संख्या में भक्त मां रतनगढ़ वाली और कुंवर महाराज का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते हैं। यहाँ भक्त हर साल माता और कुंवर महाराज के दर्शन पाने के लिए सर्पदंश पीड़ित लोग भी यहां पहुंचते है।
दतिया जिला के सेंवढ़ा से आठ मील दक्षिण पश्चिम की ओर रतनगढ़ नामक एक स्थान है। यहां कोई गांव नहीं है। एक ऊंची पहाड़ी पर दुर्ग के अवशेष मिलते हैं। दुर्ग सम्पूर्ण पत्थर का रहा होगा, जिसकी दीवारों की मोटाई बारह फीट के लगभग है। यह पहाड़ी तीन ओर से सिन्धु नदी की धारा से सुरक्षित है। इसी विचार से यह दुर्ग बनाया गया होगा। स्थान अतयन्त ही रमणीक रहा होगा। घने जंगल के बीच में है। यहां उस पहाड़ी पर एक देवी का मंदिर बना हुआ है जिसे रतनगढ़ की माता के नाम से जाना जाता है।
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गत दो दशकों तक डाकुओं के आंतक के कारण यहां लोगों का आना जाना कम ही हो गया था। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यहां एक मेला भरता है जिसमें अनेक व्यक्ति देवी की मनौती मनाने के लिए आते हैं, जिसकी कामना पूर्ण हो जाती है, वे देवी को प्रसाद चढ़ाने, ब्राह्मण को भोजन कराने और देवी की आराधना में बोये हुए यवांकुर चढ़ाने के लिए आते हैं। इस स्थान की ख्याति दूर-दूर तक एक सिद्ध पीठ के रुप में है। यहां से सात आठ मील की दूरी पर ही देवगढ़ का किला है जो बहुत कुछ ठीक स्थिति में है।
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किले के अनेक कमरों में ताले पड़े हुए हैं जिन्हें कदाचित शताब्दियों से नहीं खोला गया। कहते हैं कि इस स्थान पर रात को कोई ठहर नहीं सकता जिन्होंने ठहरने का दु:स्साहस किया, उनके शव ही दूसरे दिन पाये गये। रतनगढ़ के राजा रतन सिंह के सात राजकुमार और एक पुत्री थी। पुत्री अत्यन्त सुन्दरी थी उसकी सुन्दरता की ख्याति से आकर्षित होकर उलाउद्दीन खिलजी ने उसे पाने के लिए रतनगढ़ की ओर सेना सहित प्रस्थान किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें रतन सिंह और उनके छः पुत्र मारे गये। सातवें पुत्र को बहिन ने तिलक करके तलवार देकर रणभूमि में युद्ध के लिए बिदा किया। राजकुमारों ने भाई की पराजय और मृत्यु का समाचार पाते ही माता वसुन्धरा से अपनी गोद में स्थान देने की प्रार्थना की। जिस प्रकार सीता जी के लिए माँ धरित्री ने शरण दी थीं, उसी प्रकार इस राजकुमारी के लिए भी उस पहाड़ के पत्थरों में एक विवर दिखाई दिया जिसमें वह राजकुमारी समा गई उसी राजकुमारी की यहां माता के रुप में पूजा होती है। यहां यह विवर आज भी देखा जा सकता है। मुसलमानों से युद्ध का स्मारक हजीरा पास में ही बना हुआ है। हजीरा उस स्थान को कहते हैं जहां हजार से अधिक मुसलमान एक साथ दफनाये गये हों। विन्सेण्ट स्मिथ ने इस देवगढ़ का उल्लेख किया है जो ग्वालियर से दस मील की दूरी पर है। युद्ध में मारे जाने वाले राजकुमार का चबूतरा भी यहां बना हुआ है जिसे कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है।
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किसी भी पुरुष अथवा पशु को सांप काटने पर प्रायः कुँवर साहब के नाम का बंध लगा दिया जाता है जिससे विष का प्रभाव सारे शरीर में व्याप्त नहीं होता। यह बंध कोई धागा आदि नहीं होता जिसे बांधा जाता हो। केवल कूँवर साहब की आन देकर उस स्थान के चारों ओर उंगली फेर देते हैं, इसी को बंध कहा जाता है। दीपावली के पश्चात पड़ने वाली द्वितीया के मेले में इस चबूतरे के पास सपं दंश वाले ऐसे लोगों और गाय, बैल, भैंस आदि के बंध काटे जाते हैं। विचित्र बात तो यह कि पुजारी के बंध काटते हो उस व्यक्ति को मूर्छा आती है, उसे चबूतरे का परिक्रमा कराकर घर जाने दिया जाता है। लेखक को एक बार अपने कुछ साथियों सहित इस चमत्कार को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। एक के बाद एक इस प्रकार के अनेक स्री पुरुष जाते गये और बंध काटने के समय उन्हें उनके साथी सहारा देकर चबूतरे की परिक्रमा कराते रहे। पर जब एक बैल का बंध काटने के पश्चात वह चक्कर खाकर गिर पड़ा तो इस चमत्कार को देखकर हम लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। हम लोग भी कुँवर साहब के इस प्रभाव के सामने सिर झुकाकर चले आये।
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कुँबर बाबा साहब
बुन्देलखण्ड के प्रायः प्रत्येक गांव में, गांवके बाहर अथवा भीतर एक चबूतरे पर दो ईंटें रखी रहती हैं जिन्हें कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है। इन्हें जनमानस में लोक देवता के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। सामान्य व्यक्तियों को इनके सम्बन्ध में केवल इतना ही बात है कि ये कोई राजपुत्र थे। अनेक स्थानों पर बहुत प्राचीन सर्प के रुप में भी ये दिखाई देते हैं। उस समय एक दूध का कटोरा रख देने से ये अदृश्य हो जाते हैं। ऐसा लोगों का विश्वास है।