#जावेदअख्तर अपने समाज, समय से असंतुष्ट शायर लगते हैं। ऐसा लगता है वो हरवक्त एक सफर में है और अब किसी मंज़िल की चाह नहीं । उनकी शायरी में इसकी झलक रह-रह के मिलती रहती है
प्रश्न – मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ ?
उत्तर – जावेद अख्तर जिनको लोग प्यार एवं इज्ज़त से जावेद साहब कहते हैं , की शायरी से गुजरते हुए ऐसा लगता है । उनकी दूसरी किताब लावा को पढ़ते हुए ऐसा लगता है । किताब के प्रकाशन के बाद उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । उनके व्यक्तित्व में , आँखों में एक गुस्सा नज़र आता है । यही उनकी शायरी में भी झलकता है। वे शुरू से बागी रहे । इतने बागी कि अपनी शादी में पिता को न बुलाया । कारण पूछने पे कहा कि पिता ने मुझे अपनी शादी में बुलाया था क्या ?
ज़्यादा लोग जावेद अख्तर को उनकी फिल्मो ,गीतों या फिर उनके द्वारा दिए गए इंटरव्यूज , उनके बयानो के द्वारा जानते हैं . इस लेख में उनकी शायरी के द्वारा जानने की कोशिश है .
जावेद साहब के शब्दों में उन्होंने शायरी कहना बेहद लेट शुरू किया. ये उनकी विरासत के प्रति बगावत थी. उनके पिता जाँनिसार अख्तर , मामा मजाज़ लखनवी, दादा मुज़तर खेराबादी शायर थे . तीनो बेहद बड़े शायर थे, हैं. (हैं लगाने का कारण – शायर मरता नहीं . सिर्फ जिस्म मरता है) जावेद साहब ने बेहद दौलत, शौहरत के साथ लम्बी उम्र और अच्छा स्वास्थ कमाया। 2012 में आई उनकी किताब “लावा” को पढ़ते हुए लगा कि अपने समाज,समय से बेहद असंतुष्ट हैं, दुखी भी हैं।
वे सवाल उठाने वाले शायर हैं. उन्होंने हर रंग के शेर कहे. 148 पन्ने की किताब के टाइटल पे गौर करें “लावा” ! लावा शब्द की इमेज जो ज़हन में आती है. एक सुनहरे रंग का खौलता हुआ द्रव्य समंदर , ज्वालामुखी के मुहाने पे । ये जिसको छुएगा उसको जस्ब कर लेगा । मैं इस लेख में कई जगहों पे शायद प्रयोग करूँगा . क्यूंकि ये शायरी का मेरा इंटरप्रिटेशन है . आपका अपना होना चाहिए।
अब किताब पे लौटते हैं –
पेज नंबर 13 पे पहली ग़ज़ल है , उसका पहला शेर।मैं जिस सफ़र की बात कर रहा था, शायद उसके बारे में जावेद साहब कह रहे हैं
जिधर जाते हैं सब , जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल(घिसे-पिटे) रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
पेज नंबर 15 पे ग़ज़ल का दूसरा शेर
मैं जिस दुःख की बात कर रहा था . शायद जिससे मौजूदगी के कारण से वे खुद अनजान हैं .
कोई अगर पूछता ये हमसे , बताते हम गर तो क्या बताते
भला हो सब का कि ये न पूछा कि दिल पे ऐसी खराश क्यों है
पेज नंबर 18 पे नज़्म की पंक्तियाँ
जावेद साहब हमारे समाज में सत्ता के सिस्टम पे सवाल खड़े कर रहे हैं
ये जंग है जिसको जीतना है
ये जंग है जिसमे सब है जायज़
इसी नज़्म की आगे की पंक्तियाँ
मैं सोचता हूँ
जो खेल है
इसमें इस तरह का उसूल क्यों है
कि कोई मोहरा रहे कि जाए
मगर जो है बादशाह
उसपर कभी कोई आंच भी न आये
वजीर ही को है बस इजाज़त
कि जिस तरफ भी वो चाहे जाये
पेज 21
शायद जावेद साहब के अंदर की बेचैनी इस शेर में बयान होती है
पुर-सुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत
पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिये
पेज 23
इस शेर को पढ़ते हुए लगता है शायद जावेद साहब को पता है वे मृगतृष्णाओं में वक़्त गँवा चुके हैं और इसका कुछ हासिल नहीं .
हमने ढूंढें भी तो ढूंढें हैं सहारे कैसे
इन सराबों पे कोई उम्र गुज़ारे कैसे
पेज 28
शायद अपने जीवन में बेहद व्यस्त होने पे कहते हैं
मेरा तो अब ये आलम है , अक्सर ऐसा होता है
याद करूँ तो याद नहीं आता , घर कैसा होता है
पेज 37
शायद अपने हर तरफ मौजूद चमक के बीच शायद वे समाज को बाटने वाले तत्वों से सवाल कर रहे हैं
ये नया शहर तो है ख़ूब बसाया तुमने
क्यों पुराना हुआ वीरान ज़रा देख तो लो
पेज 39
जीवन मृगतृष्णा है ! इसपे ये बुद्ध से लेकर मीरा ने कहा . जावेद साहब ये अपने शब्दों में कह रहे हैं
तू किसी पे जाँ को निसार कर दे कि दिल को क़दमों में डाल दे
कोई होगा तेरा यहाँ कभी ये ख्याल दिल से निकाल दे
इसी ग़ज़ल में आगे वो सत्ता के बारे में कहते हैं जो सवालों से डरती है . सवाल नहीं उठाने देना चाहती है .
मिरे हुक्मराँ भी अजीब हैं कि जवाब लेके वो आए हैं
मुझे हुक्म हैं कि जवाब का हमें सीधा सीधा सवाल दे
पेज 42
मैंने पहले ही कहा था वो शायद हरवक्त एक सफर में हैंऔर अब किसी मंज़िल की चाह नहीं ।
हमको तो बस तलाश नए रास्तों की है
हम हैं मुसाफिर ऐसे जो मंज़िल से आये हैं
पेज 43 , पेज 46
जीवन के बेमानी होने पे जीवन की क्षणभंगुरता पे शायद वे कहते हैं
मिसाल इसकी कहाँ है कोई ज़माने में
कि सारे खोने के ग़म पाए हमने पाने में
ज़िन्दगी की शराब मांगते हैं
हमको देखो , कि पी के प्यासे हैं
पेज 51
वही सफ़र जिसमे वे हर वक़्त हैं
जब आईना कोई देखो इक अजनबी देखो
कहाँ पे लाई है तुमको ये ज़िन्दगी देखो
पेज 59
वे शायद स्वयं को criticise कर रहे हैं
गुज़र गया वक़्त दिल पे लिख कर न जाने कैसी अजीब बातें
वरक़ पलटता हूँ मैं जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है
पेज 84 , पेज 88
वही सफ़र , उसकी झलकी
इस नगरी में क्यों मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिनकी नगरी है वो जाने हम ठहरे बंजारे लोग
ढलता सूरज , फैला जंगल , रस्ता गुम
हमसे पूछो कैसा आलम होता है
पेज 93
वो दुःख जिसका कोई कारण शायद वे स्वयं भी नहीं जानते . साथ साथ वे अपने नास्तिक होने को रेखान्क्ति करते हैं
मैं कब से कितना हूँ तन्हा तुझे पता भी नहीं
तिरा तो कोई ख़ुदा है मिरा ख़ुदा भी नहीं
कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं
पेज 105
शायद ये चारागार भी वे स्वयं हैं . और सवाल तो स्वयं से है ही !
ये मुझसे पूछते हैं चारागर(चिकित्सक) क्यों
कि तू ज़िन्दा तो है अब तक , मगर क्यों
पेज 106
वही सफ़र , उसी की झलकी
सुनायेंगे कभी फुर्सत में तुम को
कि हम बरसों रहे हैं दरबदर क्यों
पेज 107
वो दर्द जो उनके दिल में रह रह के उठता रहा है .
ज़ख्म-ख़ुर्दा(घायल) लम्हों को मसलेहत(नीति) संभाले है
अनगिनत मरीज़ों को एक चारागर तन्हा
बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में
कैद अब सदफ़(सीप) में है बनके गुहर(मोती) तन्हा
पेज 112
आज के समय में मौजूद जातिवाद , कट्टरता , धार्मिक उन्माद पे शायद वे कहते हैं .
धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है
न पूरे शहर पर छाए तो कहना
इस किताब का आखिरी पन्ना 148, जिसपे पेज नंबर नहीं लिखा है , पे ये शेर लिखा है
वही सफ़र जिसकी किताब के पहले शेर में झलकी थी . वही झलक अंतिम शेर में भी है
उसकी आँखों में भी काजल फैल रहा है
मैं भी मुडके जाते-जाते देख रहा हूँ
(मानस भारद्वाज कवि और लेखक हैं, ये उनके निजी विचार हैं।