कृष्णमोहन झा। पांच राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव (up election) कार्यक्रम घोषित होने के बाद उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के दो मंत्रियों ने सत्ता धारी भारतीय जनता पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। इन दोनों मंत्रियों के साथ ही सत्ताधारी दल के कुछ विधायकों ने भी पार्टी छोड़ दी है और दोनों पूर्व मंत्री समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं। राजनीतिक पंडितों ने कुछ और भाजपा विधायकों के पार्टी छोड़ने के अनुमान व्यक्त किए हैं। इसके दूसरी ओर सपा और कांग्रेस के एकाधिक विधायकों ने भाजपा में शामिल होने की घोषणा कर दी है। अगले कुछ दिनों तक यह सिलसिला जारी रहने की संभावनाएं भी व्यक्त की जा रही हैं और इसमें दो राय नहीं हो सकती कि जब तक उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए विभिन्न राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार घोषित नहीं कर देते तब तक यह सिलसिला थमने वाला नहीं है।
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गौरतलब है कि चुनाव आयोग ने देश के जिन पांच राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा विगत दिनों की थी उनमें से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में दल-बदल के मामले ज्यादा सामने आ रहे हैं। इन दोनों ही राज्यों में भाजपा के पास सत्ता की बागडोर है और आगामी विधानसभा चुनावों में इन दोनों राज्यों के साथ ही बाकी राज्यों में भी उसकी सत्ता में वापसी सुनिश्चित मानी जा रही है। फिर सवाल यह उठता है कि दो मंत्रियों और भाजपा के चंद विधायकों ने सत्ता धारी दल छोड़ने का फैसला क्यों किया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनों पूर्व मंत्रियों को शायद यह संदेह होने लगा था कि भाजपा आगामी चुनावों में उनको टिकट से वंचित कर सकती है अथवा वे अपने समर्थकों को मनचाही संख्या में टिकट दिलवाने में सफल नहीं हो पाएंगे। जाहिर सी बात है कि अगर नयी विधानसभा में उनके समर्थक बड़ी संख्या में जीत कर आते तो मुख्यमंत्री पर मनचाहे विभाग अर्जित करने के लिए दबाव बना सकते थे।
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दरअसल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य में सरकार और पार्टी के अंदर ऐसा दबदबा बनाकर रखा है कि उन पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता। यह भी माना जा सकता है कि गत पांच सालों के मुख्यमंत्री पर दबाव बनाने के प्रयासों में उक्त मंत्रियों और विधायकों को असफलता हाथ लगी हो। कारण है कि भाजपा सरकार के दो मंत्रियों और कुछ विधायकों ने पार्टी छोड़ने का फैसला किया। इन दोनों पूर्व मंत्रियों ने अपने इस्तीफे का यह कारण बताया है कि योगी सरकार ने पिछले पांच सालों में दलितों और पिछड़े वर्गों के लोगों की हमेशा उपेक्षा की और उनके सामाजिक आर्थिक उन्नयन के लिए कोई प्रयास नहीं किए। अगर उनके आरोपों को सच माना जाए तो योगी सरकार से इस्तीफा देने वाले इन मंत्रियों से यह सवाल पूछा जा सकता है कि उन्होंने इस मुद्दे को पांच सालों तक क्यों नहीं उठाया और पांच सालों तक दलितों की उपेक्षा क्यों सहते रहे। यहां यह भी गौर करने लायक बात है कि स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा से बसपा और सपा में भी रह चुके हैं और घूम फिर कर फिर सपा में पहुंच गए हैं।
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भाजपा में आने के पूर्व भी उन्होंने पार्टी बदलने का यही कारण बताया था। खुद को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी बताकर दरअसल वे सपा में इसलिए शामिल हुए हैं क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनावों में सपा की संभावनाएं बलवती नजर आ रही हैं लेकिन शायद वे यह भूल गए हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की सत्ता में वापसी सुनिश्चित मानी जा रही है और उनका भाजपा छोड़ने से उसकी सत्ता में वापसी की बलवती संभावनाएं तनिक भी प्रभावित नहीं होंगी। स्वामी प्रसाद मौर्य दावा कर रहे हैं कि जब उन्होंने बसपा छोड़ी थी उसके बाद बसपा के पराभव की शुरुआत हुई और अब उनके भाजपा छोड़ने के इतिहास अपने आप को दोहराएगा। लेकिन न जाने क्यों वे इस तथ्य को नजरंदाज कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के कुल मतदाताओं में मौर्य उपजाति के मात्र 3 प्रतिशत मतदाता हैं, जबकि 2016 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 40 प्रतिशत मत हासिल किए थे। इतना तो तय है कि स्वामी प्रसाद मौर्य अपनी कुछ शर्तों पर ही सपा में शामिल होने के लिए तैयार हुए हैं।
सवाल यह भी उठता है कि क्या सपा में उन शर्तों के पूरा न होने पर वे सपा छोड़ने का भी विकल्प चुनेंगे। यहां यह भी गौरतलब है कि स्वामी प्रसाद मौर्य अपने मन में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा भी पाले हुए हैं परंतु अगर वे यह मान बैठे हैं कि सपा में शामिल होने से उनकी यह महत्वाकांक्षा पूरी हो जाएगी तो इसे उनका दिशा स्वप्न ही माना जा सकता है। यह भी आश्चर्यजनक है कि स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा छोड़ने की घोषणा के तत्काल बाद उनके विरूद्ध अतीत में दर्ज एक पुराने आपराधिक मामले को लेकर योगी सरकार की पुलिस ने गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया। इस प्रश्न योगी सरकार को देना चाहिए कि स्वामी प्रसाद मौर्य के विरुद्ध सालों पहले दर्ज किए गए मामले को वह इतने सालों तक क्यों दबाए रही। चुनाव घोषित होने के बाद मौर्य का भाजपा सरकार और पार्टी छोड़ना और पार्टी छोड़ने के बाद उनके विरूद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाना ,इन सबके निहितार्थों को उत्तर प्रदेश की जनता भी समझ रही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर प्रदेश में दल-बदल की जो हवा चल पड़ी है उसका असर उत्तराखंड तक जा पहुंचा है ।इस छोटे से राज्य में भी दल-बदल के बड़े किस्से सुनाई देने लगे हैं। राज्य की भाजपा सरकार के केबिनेट मंत्री यशपाल आर्य और उनके विधायक बेटे ने विधानसभा चुनावों की घोषणा होते ही कांग्रेस का दामन थाम लिया है। 2016 में 9 कांग्रेस विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हुए हरक सिंह रावत के दुबारा कांग्रेस में शामिल होने की प्रबल संभावना व्यक्त की जा रही है। उत्तराखंड में सरकार किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, हरक सिंह रावत के वाहन से कभी लालबत्ती नहीं हटी परंतु पिछले दिनों भाजपा से उनको निष्कासित किए जाने के बाद वे अब पुनः कांग्रेस की शरण लेने में अपना राजनीतिक हित देख रहे हैं। ऐसा भी सुना जा रहा है कि वे अपने साथ कुछ और भाजपा विधायकों को कांग्रेस में शामिल होने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के साथ हरक सिंह रावत के संबंध कभी मधुर नहीं रहे। उधर नैनीताल से कांग्रेस विधायक और राज्य महिला शाखा की अध्यक्ष ने भाजपा में शामिल होने की घोषणा कर दी है।
चुनावी मौसम में दल-बदल का सिलसिला हमारे देश में लंबे समय से चला आ रहा है और अफ़सोस की बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल इसे बुराई के रूप में नहीं देखता। कोई भी राजनीतिक दल यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि दल-बदल से प्रजातंत्र कमजोर हो सकता है। हर दल अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए दल-बदल को प्रोत्साहित करता है। अनेक राज्यों में दल-बदल से सत्ता के समीकरण बनते बिगड़ते रहे हैं। सवाल यह उठता है कि जब दल-बदल को दल बुराई मानने के लिए तैयार नहीं है तो इस बुराई को खत्म करने की पहल कौन करेगा।