Mother’s Day Special : ‘मां’ को लेकर समाज के नजरिये में कितना परिवर्तन! जेंडर इक्वेलिटी के संदर्भ में कुछ जरुरी पड़ताल

Pooja Khodani
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Mother’s Day Special : मदर्स डे उस प्यार, देखभाल और त्याग का उत्सव है जो मां अपने बच्चों के लिए करती है। यह हमारे परिवारों और समाज में मां के योगदान का सम्मान करने और उनकी सराहना करने का दिन है। हालाँकि, लैंगिक समानता और आधुनिक समाज के संदर्भ में मदर्स डे उन चुनौतियों पर विचार करने का भी एक अवसर प्रदान करता है, जिनका सामना महिलाओं को मां के रूप में और समाज के सक्रिय सदस्य के रूप में अपनी भूमिकाओं को संतुलित करने के क्रम में करना पड़ता है।

समय के साथ आया बदलाव

अगर हम कुछ समय पहले की बात करें तो मातृत्व को एक महिला की प्राथमिक भूमिका और उसकी पूर्ति के एकमात्र स्रोत के रूप में देखा जाता था। हालांकि, आधुनिक समाज के प्रादुर्भाव और महिला अधिकारों के आंदोलनों के उदय के साथ महिलाएं पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं से मुक्त होने और मातृत्व के अतिरिक्त भी अपनी सक्षम पहचान बनाने में समर्थ हुई है। महत्वपूर्ण बात ये है कि समय में बदलाव के साथ ही हमारे द्वारा मातृत्व को देखने के तरीके और मां से की जाने वाली अपेक्षाओं में सही तरह से बदलाव आया है।

समाज, महिला और पुरूष

स्त्री विमर्श और नारीवादियों ने लंबे समय से उन चुनौतियों को पहचाना है जिनका सामना महिलाओं को मां के रूप में और समाज के सक्रिय सदस्यों के रूप में अपनी भूमिकाओं को संतुलित करने में करना पड़ता है। प्रमुख नारीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता तथा पत्रकार ग्लोरिया स्टायनम ने एक बार कहा था, “हमने बेटियों को बेटों की तरह पालना शुरू कर दिया है, लेकिन कुछ ही लोगों में अपने बेटों को बेटियों की तरह बड़ा करने का साहस होता है।” यह उद्धरण इस विचार पर प्रकाश डालता है कि माता-पिता और अन्य भूमिकाओं की बात आने पर समाज ने महिलाओं और पुरुषों पर अलग-अलग अपेक्षाएँ और सीमाएँ तय कर रखी है।

एक अन्य प्रमुख नारीवादी, चिमामांडा नगोजी अदिची ने मातृत्व के संबंध में एकल भूमिका के खतरे के बारे में बात की है। वे कहती हैं कि “एकल भूमिका रूढ़िवादिता पैदा करती है और रूढ़िवादिता के साथ समस्या यह नहीं है कि वे असत्य हैं, बल्कि यह है कि वे अधूरी हैं। वे एक कहानी को ही सम्पूर्ण कहानी बना देती है।” एडिची का तर्क है कि महिलाओं की एकमात्र जिम्मेदारी के रूप में मातृत्व की पारंपरिक रूढ़िवादिता की धारणा अधूरी और सीमित है और हमें आधुनिक समाज में मां होने का क्या मतलब है, इस बारे में अपनी समझ का विस्तार करने की आवश्यकता है।

स्त्री का समर्थन, पूरे समाज को लाभ

हाल के वर्षों में, परिवार का देखभाल करने वाली सदस्य के साथ अन्य भूमिकाओं में भी स्त्री के महत्व की पहचान बनी है। संगठनों और नीति निर्माताओं ने उन नीतियों को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया है जो कामकाजी माताओं का समर्थन करती हैं जैसे कि सवैतनिक छुट्टी, लचीली कार्य व्यवस्था, सस्ती चाइल्डकेयर और पीरियड लीव जैसे महत्वपूर्ण निर्णय। ये नीतियां मानती हैं कि मांओं को अपने करियर और अपने परिवार के बीच चयन नहीं करना चाहिए और मां या कहें कि स्त्री का समर्थन करने से न केवल महिलाओं बल्कि पूरे समाज को लाभ होता है।

हालाँकि, मातृत्व और उसके इतर भी सही लैंगिक समानता हासिल करने के लिए अब भी एक लंबा रास्ता तय करना है। उदाहरण के लिए जेंडर के हिसाब से वेतन, पद या अन्य भूमिका का निर्धारण न हो। घरेलू कार्यों के श्रम का भी महत्व और कीमत आंकी जाए। मांओं और होम मेकर को आर्थिक सुरक्षा देने के लिए कोई सकारात्मक पहल हो या नियम बने। खाना पकाने, सफाई और बच्चों की देखभाल जैसे अवैतनिक देखभाल वाले कार्यो का बोझ अभी भी महिलाओं पर बहुत अधिक है, जो समाज में पूरी तरह से भाग लेने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकता है।

नारीवादी होने का मतलब अपनी मां से प्यार करना है।

आज जब दुनियाभर में मदर्स डे मनाया जा रहा है, मातृत्व में लैंगिक समानता की दिशा में हुई प्रगति को पहचानना और उस कार्य को प्रतिबिंबित करना भी महत्वपूर्ण है और इसे करने की अब भी बहुत जरुरत है। जैसा कि प्रसिद्ध चिंतक, एक्टिविस्ट, लेखक और संपादक रोक्सेन गे ने कहा है कि “नारीवादी होने का मतलब अपनी मां से प्यार करना है। इसका मतलब है कि अपने जीवन में चुनाव करने के अपने अधिकार के लिए लड़ना, चाहे वह उनके करियर में हो या उनके व्यक्तिगत संबंधों में।” तो आज मदर्स डे पर हम जब हम अपनी मां के प्रति आभार और प्रेम जता रहे होंगे तो साथ ही इस बात का संकल्प भी लेना चाहिए कि उन्हें एक व्यक्ति और मनुष्य के रूप में भी देखना और समझना शुरु करना होगा। मां को उनकी अन्य सभी भूमिकाओं में समर्थन देकर और समाज में उनके योगदान को पहचान कर, हम सभी के लिए अधिक न्यायसंगत और सुंदर दुनिया बना सकते हैं।


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खबर वह होती है जिसे कोई दबाना चाहता है। बाकी सब विज्ञापन है। मकसद तय करना दम की बात है। मायने यह रखता है कि हम क्या छापते हैं और क्या नहीं छापते। "कलम भी हूँ और कलमकार भी हूँ। खबरों के छपने का आधार भी हूँ।। मैं इस व्यवस्था की भागीदार भी हूँ। इसे बदलने की एक तलबगार भी हूँ।। दिवानी ही नहीं हूँ, दिमागदार भी हूँ। झूठे पर प्रहार, सच्चे की यार भी हूं।।" (पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर)

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