भोपाल। देश को हिला कर रखने वाले चित्रकूट जुड़वां भाइयों के हत्याकांड के बाद पुलिस प्रणाली पर सवाल खड़े हो रहे हैं। 12 फरवरी को स्कूल की बस में से बंदूक की नोक पर अपहरण करने वाले बदमाशों को पुलिस पकड़ने में नाकाम साबित हुई। मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक अपहरणकर्ताओं ने दो दिन तक दोनों भाइयों को चित्रकूट में ही बंधक बनाकर रखा था। इस पूरे आपरेशन का नेतृत्व दो आईजी, 500 पुलिस कर्मचारियों समेत सायबर एक्सपर्ट तक की टीम के साथ मिलकर कर रहे थे। लेकिन फिर भी 12 दिन तक अपराधियों को पकड़ने में पुलिस विफल रही।
पुलिस सूत्रों के मुताबिक अपहरणकर्ताओं ने दो दिन तक प्रियांश और श्रेयांस को चित्रकूट में ही बंधक बनाकर रखा था। लेकिन पुलिस कहती रही कि उन्हें कोई सबूत नहीं मिल रहा है। तमाम नाकाबंदी के बाद भी आरोपी दोनों बच्चोंं को उत्तर प्रदेश ले जाने में सफल हो गए। पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। और ये कहती रही कि बदमाशों का काई सुराग नहीं मिल रहा है। जब मीडिया में बच्चों के मारे जाने की खबर सामने आई तो पुलिस बगले झांकने लगी। पुलिस ने हड़बड़ाहट में पहले तो आरोपियों के गलत नाम बताए लेकिन फिर रविवार को संशोधन कर जानकारी दी।
एक रिटायर्ड पुलिस अफसर ने बताया कि अपहरण के मामले में पहले तो उन सबकी एक लिस्ट तैयार करनी चाहिए थी जो पीड़ितों के संपर्क में थे। पुलिस का कहना है कि उन्होंने बच्चों के कारोबारी पिता के दोस्तों और साथियों से इस बारे में चर्चा की थी। लेकिन बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षक से पुलिस ने कोई पूछताछ नहीं की। बच्चों को रामकेश यादव ट्यूशन देने आता थे। लेकिन पुलिस ने उनसे कोई सवाल जवाब करना ठीक नहीं समझा।
सीमा पर कैसी नाकाबंदी की गई ?
इस सवाल के जवाब में पुलिस ने कहा कि जुड़वां बच्चों को दो दिन बाद यूपी ले जाया गया। लेकिन सवाल उठता है कि अगर पुलिस ने सीमा पर नाकाबंदी कर रखी थी और 500 पुलिस कर्मचारी इस मामले में जुटे थे तो सुरक्षा में इतनी बड़ी सेंध कैसे लगी। आरोपी बच्चों को लेकर सीमापार करने में कैसे कामयाब हुए। जबकि टीवी और अखबारों में बच्चों की तस्वीरें भी प्रकाशित हो गईं थी। फिर भी अपराधी शहर के बीचों बीच से दोनों बच्चों को आसानी से ले जाने में कामयाब हो गए। इस सवाल पर पुलिस अब तक चुप्पी साधे है।
छानबीन कितनी गहन थी?
चित्रकूट बहुत बड़ा शहर नहीं है, यहां करीब 4,700 परिवार निवास करते हैं। बच्चों की तलाश में चित्रकूट और आसपास करीब 50 एसएचओ और 500 पुलिसकर्मचारी किस गहनता से जांच कर रहे थे कि उन्हें दो बच्चों नहीं मिले। इससे पुलिस की छानबीन करने की गहनता की प्रणाली पर सवाल उठना वाजिब है। पुलिस ने इस बात को माना है कि घर-घर जाकर बच्चों की तलाश करने में दो से तीन दिन लगे। लेकिन आरोपी शहर में ही दो दिन तक बच्चों को लेकर किसी कौने में छिपे रहे। फिर भी पुलिस खाली हाथ रही।रीवा आईजी चंचल शेखर ने कहा कि हर घर की तलाशी नहीं ली जा सकती। आरोपियों का कोई पूर्व आपराधिक राकॉर्ड नहीं है। उन्होंने बच्चों को एक किराए के कमरे में छुपाकर रखा था और बाहर से ताला लगा दिया था।
क्या पुलिस ने फिरौती की छानबीच की?
पुलिस ने स्वीकार किया है कि वे पीड़ित परिवार द्वारा फिरौती देने के बारे में जानते थे, लेकिन पुलिस का दाना है कि परिजनों ने गिरोह को 20 लाख रुपये की फिरौती देने की सूचना उन्हें नहीं दी थी। सामान्यतौर पर इस तरह के मामले में पीड़ित परिवार का फोन निगरानी या फिर टैपिंग पर रखा जाता है। अगर पुलिस ऐसा कर रही थी तो फिर वह कैसे फिरौती की रकम लेने वालों की जगह और समय मालूम नहीं कर सकी। इसके अलावा, एक बार जब वे जानते थे कि रैंडम नंबरों से फिरौती की कॉल बांदा से आ रही है, तो चित्रकूट से केवल 40-50 किमी दूर, इस क्षेत्र की खोज की गई? पुलिस के पास संदिग्धों के स्केच भी थे, ऐसे लोगों द्वारा दिए गए विवरणों से तैयार किए गए थे जिनके फोन का इस्तेमाल फिरौती के लिए किया गया था। 10 दिनों के लिए, जुड़वाँ बच्चों को चित्रकूट से 40 किमी दूर अटारा में बंधक बनाकर रखा गया था, लेकिन पुलिस उन्हें ट्रेस नहीं कर पाई।