भोपाल। सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण देने पर मप्र सरकार अभी तक निर्णय नहीं ले पाई है। जबकि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ यह स्पष्ट कर चुके है कि प्रमोशन में आरक्षण राज्य अपने हिसाब से दे सकते हैं। आरक्षण दिए जाने के लिए पिछड़ेपन के आंकड़े इकट्ठे करने की बाध्यता भी समाप्त कर दी गई है। इस सिद्धांत के आधार पर मध्यप्रदेश की जो सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी विचाराधीन है, उस पर फैसला आना है। तब तक प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण पर रोक रहेगी।
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि इन वर्गों के कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए राज्यों को उनके पिछड़ेपन का डेटा जुटाने की जरूरत नहीं है। इस निर्णय के बाद भी मध्यप्रदेश में कर्मचारियों की पदोन्नति में लगी रोक अभी भी बरकरार रहेगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह जरूर साफ हो गया है कि राज्य सरकार संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार एससी-एसटी के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण दे सकती हैं, लेकिन यह करने से पहले राज्य सरकार को यह देखना होगा कि प्रशासनिक क्षमताओं पर कोई दुष्प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है। इसका आकलन करने के बाद पदोन्नति में आरक्षण दिया जा सकेगा। राज्य सरकार अभी तक इस मसले पर कोई फैसला नहीं कर पाई है। न ही किसी तरह की बैठक बुलाई गई है। ऐेसी स्थिति में प्रदेश के हजारों कर्मचारियों का प्रमोशन अटका हुआ है।
मप्र ने दी थी हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती
केंद्र और राज्य सरकारें इस 12 साल पुराने एम नागराज केस से जुड़े फैसले को प्रमोशन में आरक्षण देने में बाधा बता रही थीं। 2006 के फैसले में पांच जजों की बेंच ने कहा था कि एससी-एसटी वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण देना अनिवार्य नहीं है। ऐसा करने के इच्छुक राज्यों के लिए कुछ शर्तें रखी गई थीं। संविधान पीठ में सुनवाई के दौरान मप्र सरकार ने कोर्ट से पदोन्नति देने की मांग की थी।
सरकार ने साधी चुप्पी
पदोन्नति में आरक्षण का मामला बहुत ही संवेदनशील है। इस वजह से राज्य सरकार लोकसभा चुनाव से पहले मसले पर कोई कार्रवाई नहीं करना चाहती है। क्योंकि पिछले साल 2 अप्रैल एवं 9 अप्रैल को राज्य में अलग-अलग वर्ग ने पदोन्नति में आरक्षण को लेकर भारत बंद एवं आंदोलन किया था।
हाईकोर्ट ने दिया था अवैध करार
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने अप्रैल 2016 में आरक्षण के आधार पर प्रमोशन को अवैध करार दिया था। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि नियुक्तियों के दौरान समाज के पिछड़े और वंचित वर्ग को नियमानुसार आरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन पदोन्नतियों में आरक्षण गलत है। इसकी वजह से वास्तविक योग्यता वालों में कुंठा घर कर जाती है। वहीं हाईकोर्ट ने सिविल सर्विसेज़ प्रमोशन रूल 2002 को भी ख़ारिज कर दिया है। इस नियम के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति को प्रमोशन में 36 प्रतिशत तक आरक्षण दिया जाता है।